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मूल कारण

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  ।।प्रणाम।। आज के परिवेश में तमाम समस्याओं का मूल कारण है, मानवीय चेतना का अधःपतन , जिसकी वजह से लोग स्वार्थी हो गए हैं। मानवीय चेतना के पुनरुत्थान के लिए प्रबल "गुरूत्व" की आवश्यकता है, ठीक उसी प्रकार जैसे किसी गहरी खाई में गिर चुके किसी वाहन को निकालने के लिए क्रेन की आवश्यकता होती है, टोचन की नहीं। गुरूत्व का अर्थ ही होता है, "खींचने की ताकत"। "गुरु वही हो सकते हैं जिनमें गुरूत्व हो"। ईश्वर अर्थात "सूक्ष्मातिसूक्ष्म परम चैतन्यात्मा" से ज्यादा गुरूत्व किसमें हो सकता है? शिव गुरु की शिष्यता परिणामदायी है, यह प्रायोगिक तौर पर सिद्ध हो चुका है। सतही तौर पर नहीं, स्थायी समाधान के लिए, समस्या के मूल कारण को दूर करने हेतु... "आइये भगवान शिव को 'अपना' गुरु बनाया जाय"... 3 सूत्रों की सहायता से: 1. दया मांगना: "हे शिव आप मेरे गुरु हैं, मैं आपका शिष्य हूँ, मुझ शिष्य पर दया कर दीजिये" (मन ही मन)। 2. चर्चा करना: दूसरों को भी यह सन्देश देना कि, "आइये भगवान शिव को 'अपना' गुरु बनाया जाय"। 3. नमन करना: अपने गुरु क

तौहीद (एकेश्वरवाद) क्या है?

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  तौहीद (एकेश्वरवाद) क्या है? दृश्य हो या अदृश्य, साकार हो या निराकार, हर रूप में उसी विश्वरूप (ईश्वर) को देखना ही एकेश्वरवाद (तौहीद) है। "सकल राममय यह जग जानी" इसीलिए जिस स्वरूप से भी प्रेम हो, पूजा केवल ईश्वर की ही होती है। केवल अल्पविकसित चेतना के लोग ही किसी की पूजा पद्धति पर निषेध लगा सकते हैं, क्योंकि उन्हें इतनी भी समझ नहीं है कि हर व्यक्ति की चेतना का स्तर और हर व्यक्ति का व्यक्तित्व अलग-अलग होता है, इसीलिए हर व्यक्ति ईश्वर के एक ही स्वरूप के प्रति आकर्षित नहीं हो सकता। किसी पर भी अपनी पसंद जबरदस्ती थोपना केवल और केवल पागलपन है। अध्यात्म और संस्कृति से सुसम्पन्न भारत के लोगों को कबीलाई पागलपन की नकल करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जिनके पूर्वजों ने किसी मजबूरी के तहत अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का त्याग किया था, उन्हें घर वापसी करनी चाहिए, अन्यथा किसी कल्पनालोक की आशा में यथार्थ लोक को नष्ट होते देखने की मूर्खता ही एकमात्र विकल्प बचेगा। "स्वरग नरक एही जग माही, करमहीन नर पावत नाहीं" प्रेम की मनोदशा ही स्वर्ग है और घृणा की मनोदशा ही नर्क है। "दया धरम का म

प्यार या व्यापार

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लोभ या भय से व्यापार किया जाता है, प्यार नहीं। लोभ चाहे स्वर्ग का हो या भय हो नर्क का, या कोई और, अगर पूजा या इबादत का कारण लोभ या भय है, तो यह पूजा है ही नही! क्योंकि ईश्वर से प्रेम को ही भक्ति कहते हैं और भक्तिवश किया गया कोई भी कर्म ही पूजा है। अगर हृदय में ईश्वर के प्रति प्रेम जग जाए, तो बिन मांगे ही वो सबकुछ मिल जाता है, जो मांगने से भी नही मिलता। शिष्य के हृदय में शिव (ईश्वर) के प्रति प्रेम जग जाए, किसी भी गुरु का यही काम है। शिवगुरु का भी यही काम है। आज के परिवेश में तमाम समस्याओं का मूल कारण है, "मानवीय चेतना का अधःपतन", जिसकी वजह से लोगों में समझ की कमी हो गई है और लोग तुच्छ-स्वार्थी हो गए हैं। मानवीय चेतना के पुनरुत्थान के लिए प्रबल "गुरूत्व" की आवश्यकता है, ठीक उसी प्रकार जैसे किसी गहरी खाई में गिर चुके किसी वाहन को निकालने के लिए क्रेन की आवश्यकता होती है, टोचन की नहीं। गुरूत्व का अर्थ ही होता है, "खींचने की ताकत"। "गुरु वही हो सकते हैं जिनमें गुरूत्व हो"। ईश्वर अर्थात "सूक्ष्मातिसूक्ष्म परम चैतन्यात्मा" से ज्यादा गुरूत्व कि

जरूरत या पसंद

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  इस दुनियां को अच्छी चीजें देना सबसे कठिन काम है, क्योंकि जरुरत है जो लोगों की वो उनकी पसंद नहीं और पसंद है जो लोगों की वो उनकी जरूरत नहीं। उदाहरण के लिए, उपचार के प्राकृतिक नियमों का पालन करते हुए, अगर कम से कम दवा का प्रयोग करते हुए दबे हुए रोगों को बाहर निकाल कर वर्तमान उपचार के साथ साथ भविष्य में होने वाले जटिलताओं से भी बचाव करने वाली चिकित्सा, जो लोगों की जरूरत है, वो आम लोगों की पसंद नहीं है, जबकि भारी मात्रा में बाहरी हस्तक्षेप कर, निकल रहे विकारों को दबा कर, भविष्य में होने वाली गंभीर जटिलताओं का कारण बनने वाली पद्धति आम लोगों की पसंद है! उसी तरह शुद्ध देसी गायों के स्वास्थ्यवर्धक दूध की जगह, विदेशी गायों का अस्वास्थ्यकर दूध, अथवा मिलावट वाले तथा कृत्रिम नकली दूध आम लोगों की पसंद है। जानते हैं क्यों? क्योंकि अधिकांश लोग या तो नासमझ हैं या खुद कमीने हैं। कैसे? अपवादों को छोड़ दें तो आज के दौर में लगभग हर आदमी अपने फायदे के लिए किसी और के नुकसान की कोई परवाह नहीं करता। यहां तक कि मौका मिलते ही गिरी हुई हरकत करता है अगर पकड़े जाने का भय नहीं हो। तो 2 नंबर लोगों को ईश्वर ही भटका

सफलता का पैमाना

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 सफलता का पैमाना यह नहीं कि इस जगत से आपने कितना लिया है, बल्कि सफलता का पैमाना यह है कि इस जगत को आपने कितना दिया है। हालांकि देनेवाले तो केवल ईश्वर हैं, लेकिन क्या हममें प्रदाता बनने की, माध्यम बनने की चाहत है? क्या हम लेने की जगह देने को उत्सुक हैं? या केवल दुनियाँ की नजर में स्वयं को सफल सिद्ध करने के लिए, इस जगत का अधिकाधिक दोहन और शोषण करने की ही प्रवृत्ति है? लोगों से प्रशंसा पाने के लिए दिखावा वही करता है, जिसकी अपनी अंतरात्मा उसकी प्रशंसा नहीं करती। आपकी अंतरात्मा आपकी प्रशंसा तब करती है, जब आप बिना किसी अपेक्षा के, बिना किसी लोभ के, यहाँ तक कि बिना किसी की प्रशंसा पाने की चाहत लिए, आप कोई ऐसा कार्य करते हैं जो लोकहित में हो। अब लोकहित भी तो जगदीश्वर ही कर सकते हैं! समाधान अर्थात कल्याण करने का सामर्थ्य तो केवल ईश्वर में है! इसीलिए तो उन्हें शिव कहा गया है! तो हम आप केवल इतना ही करने का प्रयास कर सकते हैं कि लोगों का जुड़ाव उस परमसत्ता से हो सके। इसके लिए भी उस परमगुरु की दया की आवश्यकता है। ।।प्रणाम।। "आइये भगवान शिव को 'अपना' गुरु बनाया जाय"... 3 सूत्रों की

Why the God as Guru शिव ही गुरु क्यों

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शिव ही गुरु क्यों? क्या मनुष्य गुरु नहीं हो सकते? बिलकुल हो सकते हैं। यहाँ तक कि, हर मनुष्य गुरु भी है और शिष्य भी। शिव को अपना गुरु बनाने का मतलब, बाँकी गुरुओं की उपेक्षा करना नहीं है। उलटे जगद्गुरु को अपना गुरु बनाने से जगत् का हर चराचर गुरु हो जाता है, चाहे वह स्थूल हो, सूक्ष्म हो, या सूक्ष्मातिसूक्ष्म। लेकिन मनुष्य को गुरु बनाने के लिये, पहले से भी पात्रता की आवश्यकता होती है । जैसे कि, अगर किसी मेडिकल कॉलेज में पढ़ना है, तो पहले से ही 10+2 पास होना चाहिये, बायोलॉजी  से और अगर इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ना है मैथमेटिक्स से। साथ में फिजिक्स, केमिस्ट्री, इंग्लिश इत्यादि। यही कारण है कि, जितने भी शरीरधारी मनुष्य प्रसिद्ध सद्गुरु हुए, उनके गिने चुने ही शिष्य प्रसिद्ध हुए, ज्यादतर मामलों में 1 ही। जैसे कि, रामानंद स्वामी के 1 कबीरदास या रामकृष्ण परमहंस के विवेकानंद। क्योंकि पूर्व-पात्रता वाले शिष्यों का मिलना, अत्यंत दुर्लभ बात है। बात जब आध्यात्मिक गुरु की आती है, तो गुरु मिलना ही दुर्लभ है और योग्य शिष्य मिलना तो और भी दुर्लभ। भौतिक गुरु भौतिक ज्ञान दे सकते हैं, लेकिन आध्यात्मिक ज्ञान के

शास्त्रों में शिव गुरु

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शिव पुराणः शिवपुराण की रूद्र संहिता में उल्लेख मिलता है कि महादेव जी ने कहा,, विधाता, मैं जन्म और मृत्यु की भय से युक्त अशोभन जीवों की सृष्टि नहीं करूंगा ,क्योंकि वे कर्मों के अधीन हो दुख के समुद्र में डूबे रहेंगे। मैं तो दुख के सागर में डूबे हुए उन जीवों का उधार मात्र करूंगा,गूरू स्वरूप धारण करके, उत्तम ज्ञान प्रदान कर ,उन सबको संसार सागर से पार करूंगा। _______________________________________________ शिवपुराण की वायवीय संहिता में शिव के योगाचार्य होने और उनके 112 शिष्य -प्रशिष्यौं का विशद  वर्णन मिलता है। ________________________________________________ पद्पुराण :पद्मपुराण मूलतः विष्णु जी पर आधारित है और उसमें शिव को जगतगुरु कहा गया है। __________________-____________________________  ब्रह्मवैवर्त पुराण: ब्रह्मवैर्वत पुराण मे ,असित मुनि द्वारा रचित शिव स्त्रोत के प्रथम सुक्त में शिव को जगतगुरु, योगियों के स्वामी और गुरुओं के गुरु भी कहा गया है।श्लोक ईस प्रकार है। जगद्गुरो नमस्तुभ्यं शिवाय शिवदाय च।  योगेंद्रणां च योगिंद्र गुरुणां गुरुवे नमः।। अर्थात हे ! जगत गुरु आपको नमस्कार है ,आप श

सत्ता या शक्ति, देव या देवी।

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जहां सत्ता है, वहीं शक्ति है। जहां शक्ति है, वहीं सत्ता है। जो पंच ज्ञानेन्द्रियों की पकड़ में नहीं आये, उसे सूक्ष्म कहते हैं। संसार में केवल पदार्थ ही नहीं है, चेतना भी है, जिसकी इच्छाशक्ति से पदार्थ की उत्पत्ति होती है। सूक्ष्म सत्ता को देव तथा सूक्ष्म शक्ति को देवी कहा गया है। परम सूक्ष्म सत्ता को महादेव, देवाधिदेव, शिव इत्यादि तथा परम सूक्ष्म शक्ति को महादेवी, पराशक्ति, शिवा इत्यादि कहा गया है। सूक्ष्म, स्थूल से अधिक शक्तिशाली होता है। ज्यादा सूक्ष्म ज्यादा शक्तिशाली होता है। परम सूक्ष्म सत्ता परम शक्तिशाली है। सूक्ष्मातिसूक्ष्म परम चैतन्यात्मा को ही शिव कहा गया है, क्योंकि वह परम कल्याण करते हैं। गुरु की दया से आदेश की प्राप्ति होती है, जिसमें बल होता है। गुरु जितने सबल होंगे, आदेश में भी उतना ही बल होगा। गुरु की दया अहैतुकी होती है, लेकिन किस पर? शिष्य पर। ।।प्रणाम।। "आइये भगवान शिव को 'अपना' गुरु बनाया जाय"... 3 सूत्रों की सहायता से: 1. दया मांगना: "हे शिव आप मेरे गुरु हैं, मैं आपका शिष्य हूँ, मुझ शिष्य पर दया कर दीजिये" (मन ही मन)। 2. चर्चा करना: दूसर

आदमी निरुपाय है लेकिन...

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मनुष्य जो चाहता है, वो हो नहीं पाता और जो नहीं चाहता वो हो जाता है। जैसे कि मनुष्य बीमार नहीं पड़ना चाहता, मरना नहीं चाहता, अपनों से दूर नहीं होना चाहता, दुखी नहीं होना चाहता, लेकिन होता क्या है? आप किसी को शिव-शिष्य बनाना चाहते हैं, लेकिन कई लोग भगवान शिव को अपना गुरु मानते ही नहीं। जो मानते भी हैं, तो उनमें से अनेक तीनों सूत्रों का पालन नहीं करते। तीनों सूत्रों का पालन करने वालों में से भी कई लोग प्रशंसा पाने के उद्देश्य से, वाहवाही लूटने के उद्देश्य से, सम्मान पाने के उद्देश्य से, प्रमुखता पाने के उद्देश्य से या धन कमाने के लोभ से, करते हैं। मंशा बदल जाने की वजह से दिशा बदल जाती है और दिशा बदल जाने से दशा बदल जाती है। आप चाहते हैं कि ऐसा न हो, लेकिन चाहकर भी कुछ कर नहीं पाते और खुद को निरुपाय की अवस्था में देखते हैं। ऐसी अनेक स्थितियां हैं, या कहिये कि, हर जगह, हर स्थिति में आदमी निरुपाय ही है। जैसे कि, आदमी घर से निकलता है कहीं जाने के लिए, लेकिन सुरक्षित पहुंचेगा कि नहीं, यह केवल उसके हाथ में नहीं है। अर्थात, स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी ने अपने नौकर से सही ही कहा था, "आदमी निरुप

नमः शिवाय

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अध्यात्म जगत में जो मंत्रों का विज्ञान बना।  मानव का धरती के आकर्षण में जीना स्वभाव है उसकी अपनी शारीरिक जरूरतों के कारण मजबूरी भी। इस जगत में शरीर में आया है  तो उसके जीवन के दो उद्देश्य हैं एक लौकिक सुख सुविधा दूसरा परमात्मा में अपनी वापसी। परमात्मा में अपनी वापसी तब तक नहीं हो सकती जब तक कि वह अपने मूल स्वरूप को ना जान जाए यानी स्वयं की बोधात्मक समझ पैदा ना हो जाए इन्हीं दो उद्देश्यों के लिए मंत्रों का विज्ञान बना पूजाओं की अनेकों अनेक विधियां इस अध्यात्म और जगत में बनी और पूजा अर्चना याचना के आयाम बने। धरती के सुख पाने वाले जो मंत्र हैं उनकी विधि और आयाम अलग है अवधि भी निर्धारित है जिस के क्रम में बहुत सारे मंत्र इस जगत में अनेकों अनेक देवताओं के अनेक अनेक मंत्र बने। हर देवता के नाम से प्रणाम और आवाहन की विधि के निमित्त एक मंत्र विज्ञान है। नमः शिवाय मंत्र विश्व की साधना आराधना की विधियों में मूल मंत्र कहा जाता है बीज मंत्र कहा जाता है। सबसे सर्वोत्तम मंत्र। कहा जाता है कहा जाता है कि नमः शिवाय में 7 हजार करोड़ मंत्रों का समावेश है। धरती का सुख कम अवधि में पाने के लिए और जाने अनजान

जीवन में गुरु की आवश्यकता

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प्रत्येक मनुष्य के जीवन में एक आध्यात्मिक गुरु की आवश्यकता होती है. गुरु का काम होता है परमात्मा से सम्बन्ध स्थापित करवा देना. हम जीवन में जो कुछ भी करते हैं- पूजा पाठ, दान पुण्य, व्रत उपवास, पढाई लिखाई या अपनी आजीविका का प्रयास, यह तब तक पूरी की पूरी सफलता नहीं देता जब तक की जीवन में कोई आध्यात्मिक गुरु न हो, क्योंकि हम जो भी करते हैं उसे भगवान तक पहुँचाने का काम गुरु ही करते हैं. हमारा मन जो सांसारिक गतिविधियों की ओर भाग रहा है उस मन को परमात्मा की ओर मोड़ देना गुरु का काम होता है. गुरु को मन का डाक्टर कहा गया है. जिस तरह से एक कुशल चिकित्सक शारीरिक रोगों को दूर करके हमें स्वस्थ बना देता है, वैसे ही एक योग्य गुरु हमारी मानसिक बीमारियों को दूर करके हमारे मन को स्वस्थ बना देता है. ये मानसिक बीमारियां हैं तनाव, कुंठा, अवसाद, निराशा आदि. आज समाज में ये बीमारियाँ तेजी से फैल रही हैं. इसका मूल कारण यही है की हमारे जीवन में कोई आध्यात्मिक गुरु नहीं है. अगर है भी तो योग्य नहीं है. आज मनुष्य स्वयं को सर्व समर्थ समझने लगा है. परिणामतः भौतिक सुख के साधन तो हम पा जा रहे हैं, परन्तु वह हमें चैन द

ग्रन्थ किनके लिए हैं?

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क्या ग्रन्थ गलत हैं? क्या पंथ गलत हैं? क्या सारे शरीरधारी गुरु गलत हैं? साहबश्री ने एक उदाहरण दिया है... कोई भैंस किसी किसान का खेत चर रही है, किसान निवेदन करता है, हे महिष्मति देवी, आप मेरा खेत मत चरिये, मेरे परिवार के बारे में सोचिये, महाजन का कर्ज है, आगे बेटी का विवाह है, वगैरह, वगैरह। क्या भैंस पर कोई फर्क पड़ेगा? नहीं, क्योंकि उसके पास इतनी समझ नहीं है! ठीक उसी तरह, सरे ग्रंथ, पंथ, आदमियों के लिए हैं, जानवरों के लिए नहीं! आज का आम इंसान इतना नीचे गिर चुका है कि उसे आदमी तो क्या जानवर कहना भी मुश्किल है। इसीलिए ग्रंथों की बात इनकी समझ से परे है। इसीलिए साहबश्री ने कहा है, "पहले आदमी तो बन जाएँ" ... नहीं ग्रन्थ या पंथ गलत नहीं हैं। न ही शरीरधारी गुरु गलत हैं। बस उन्हें "समझने की योग्यता" हमारे पास नहीं है। हमारी चेतना उस तल के आस-पास भी नहीं है, जिस तल से ये बातें कही जा रही हैं। मानवीय चेतना का अधःपतन हो चुका है, जिसके पुनरुत्थान हेतु, प्रबल गुरूत्व की आवश्यकता है। जिस प्रकार गहरी खाई में गिर चुकी किसी गाड़ी को टोचन से नहीं क्रेन से ही निकाला जा सकता है, ठीक उसी

बंदर की याद

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एक बार एक चालाक गुरु ने एक सीधे सादे शिष्य को फंसा लिया, यह कहकर कि तुम मेरी सेवा करो, बदले में मैं तुम्हें एक मंत्र दूंगा, जिसे 108 बार जप लेने से ही तुम्हें ईश्वर की प्राप्ति हो जाएगी। शिष्य ने जीजान से अपने गुरु की सेवा की, लेकिन जब भी वो मन्त्र देने का आग्रह करता, गुरुजी कोई न कोई बहाना बनाकर टाल देते। अंत में ऐसी स्थिति आयी कि अब गुरुजी का अंत समय आ गया। चेला अत्यंत अधीर हो उठा। उसने गुरुजी को पकड़ लिया कि, अब तो मन्त्र दे ही दीजिये, नहीं तो मैं आपको मरने नहीं दूंगा। जिंदगी भर मैंने आपकी सेवा की है। अब तो आपको मन्त्र देना ही पड़ेगा। गुरुजी बोले, ठीक है मैं तुम्हें मन्त्र देता हूँ, लेकिन वादा करो कि मेरा अंतिम संस्कार करने के बाद ही जपोगे। और इस मंत्र के साथ शर्त यह है कि, इसे जपने के समय "बन्दर की याद नहीं आनी चाहिए"। शिष्य अत्यंत प्रसन्न हुआ और बोला कि बिल्कुल नहीं आएगी बन्दर की याद। भला मन्त्र जप से बन्दर का क्या सम्बन्ध? आप मन्त्र तो दीजिये। उसके बाद गुरुजी ने उसे कोई भी एक मन्त्र दे दिया। कुछ ही दिनों में गुरुजी चल बसे। शिष्य ने श्रद्धा पूर्वक गुरुजी का अंतिम संस्कार क

दुःख का कारण

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किसी भी दुःख का कारण, मेरी समझ से है- अनुचित अपेक्षा। जिसका कारण है, समझ की कमी। उचित-अनुचित का निर्णय करने के लिये, विवेक या विकसित चेतना या समझ, की जरुरत है। भौतिक गुरु ज्ञान देने की कोशीश कर सकते हैं, लेकिन ग्रहण करने की क्षमता तो केवल शिव-गुरु की दया से ही मिलती है। ज्ञान को ग्रहण करने की क्षमता ही समझ है। हमारे आपके पास जितनी भी समझ (perception) है, उसका एक मात्र स्रोत है, सूक्ष्मातिसूक्ष्म परम चैतन्यात्मा (the Supreme Dynamic Consciousness), जिसे हम गॉड, अल्लाह, शिव या ईश्वर कहते हैं। हमारी आपकी चेतना का स्रोत होने की वजह से गुरू हैं ही। जरुरत है तो सिर्फ एक सम्बन्ध जोड़ने की। एक रिश्ता, गुरू शिष्य का रिश्ता।। परमगुरू शिव की दया से, साहबश्री हरीन्द्रानंदजी के माध्यम से, मानवजाति को 3 सूत्र मिले हैं, जिनकी सहायता से हम और आप शिव-शिष्य बन सकते हैं। 1. दया माँगना- "हे शिव आप मेरे गुरू हैं, मैं आपका शिष्य हूँ, मुझ शिष्य पर दया कर दीजिये"। (मन ही मन) 2. चर्चा करना- दूसरों को भी यह सन्देश देना कि, "मेरे गुरू शिव हैं, आपके भी हो सकते हैं"। 3. नमन करना- अपने गुरू को प

स्वास्थ्य और चर्चा

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स्व में स्थित होना ही स्वास्थ्य है। भू भुवः स्व स्थूल सूक्ष्म कारण इस प्रकार स्व का अर्थ हुआ वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म परम चैतन्यात्मा जो मेरे होने का कारण अथवा मेरा मूल स्वरुप है। अब अगर मेरा ध्यान स्थूल पर है तो मैं स्व में स्थित अर्थात् स्वस्थ नहीं हूँ। आज तथाकथित आधुनिक विज्ञान का सारा ध्यान "शव" पर ही है, "शिव" पर नहीं। स्थूल पर ही है सूक्ष्म पर नहीं। महामानव हैनिमैन ने सूक्ष्म शरीर के महत्त्व को पुनः प्रतिष्टित किया। सूक्ष्म दवाओं के प्रयोग द्वारा सूक्ष्म शरीर को व्यवस्थित करने का प्रयास प्रारम्भ हुआ। हैनिमैन साहब मानव जाति के इतिहास के मील के पत्थर साबित हुए। अब देखिये अगर कोई मरीज अपनी बीमारी को पकड़ लिया है और हर आने जाने वाले के साथ अपनी बीमारी की ही चर्चा करता है, तो उसका ध्यान हमेशा बीमारी पर ही बना रहेगा और वह रोगस्थ रहेगा, स्वस्थ नहीं। उपाय? हमें अपना ध्यान रोग से हटा कर स्व पर ले जाना होगा। कैसे? ध्यान का सम्बन्ध चर्चा से है। अगर हम समस्याओं की ही चर्चा में लगे हैं तो हमारा ध्यान समाधान पर कभी नहीं जा सकता। हम जिस चीज की चर्चा करते हैं, हमारा ध्यान उस चीज

धर्म, संस्कृति और संप्रदाय

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अक्सर लोग कहते हैं कि सनातन धर्म। जैसे कि कई धर्मों में से एक धर्म, सनातन धर्म भी है। कुछ लोग समझते हैं कि, हिदु भी एक धर्म है। वास्तव में सनातन धर्म नहीं, धर्म सनातन होता है। धर्म का मतलब क्या है? "धारयति इति धर्मः" अर्थात्, "जो धारण किया जाता है, वही धर्म है"। इसका तात्पर्य गुण से भी है और फर्ज यानि कर्तव्य से भी है। जैसे कि अग्नि का धर्म है जलाना, पानी का धर्म है भिंगाना और हवा का धर्म है सुखाना। धर्म का तात्पर्य कर्तव्य से भी है। मानव का एकमात्र धर्म है, मानवता। अगर 4 कुत्ते एक जगह हैं और उनमें से 1 कुत्ता बहुत तगड़ा है। बाँकी 3 कुत्ते कमजोर हैं। तभी उनके बीच कोई रोटियां डाल कर चला जाता है, तो जो सबसे तगड़ा कुत्ता है, वह अकेले सारी रोटियां खा जायेगा। भले ही उसने अभी कुछ देर पहले ही खाया है और बाँकी कुत्ते बहुत समय से भूखे हैं। वहीँ अगर 4 आदमी बहुत समय से भूखे हैं और उनके बीच 1 आदमी के लायक ही खाना पहुँचता है, तो जो सबसे मजबूत आदमी है, वह सबसे कमजोर आदमी को सबसे पहले खिलायेगा। अगर उसमें मानवता है तो। यही मानवता, मानव का धर्म है और यह नियम सनातन है। सनातन का अर्थ हो

Why Namah Shivaya Only केवल नमः शिवाय क्यों

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एक मित्र ने मैसेंजर पर पूछा ॐ नमः शिवाय क्यों नहीं? केवल नमः शिवाय क्यों? मैंने कोशीश की गुरू दया से... इस सवाल के कई जवाब हैं। मन्त्र विज्ञान में जायेंगे तो बहुत लंबा हो जायेगा। संक्षेप में मैं ये जानता हूँ कि श्वास प्रश्वास पर किये जाने वाले किसी मन्त्र में ॐ नहीं लगता है। सबसे बड़ी बात परिणाम जिससे मिलता है वो करेंगे। लोगवा जो कहता है करके देख लिये हैं। हज़ारों सालों से ॐ चल रहा है, परिणाम? सारे मन्त्र कीलित (coded) हैं। उनका उत्कीलन (decoding) करने के बाद ही वो परिणाम देता है। आप श्वास लेने समय नमः और छोड़ते समय शिवाय कर के देखिये। आराम आराम से, गिनने की कोई जरुरत नहीं। वैसे भी ॐ तो सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्पंदन है, जो साध्य है साधन नहीं। शरीर या मन इसका उच्चारण नहीं कर सकता और जीवात्मा तो स्वयं ॐ कार ही है। ये एक क्लिष्ट विषय है, इस पर मिलकर ही बात हो सकती है। वैसे भी हम शिष्यों को ज्ञान देने का नहीं, ज्ञान के परम स्रोत से जोड़ने का और जुड़ने का आदेश मिला है। उद्देश्य मन्त्र को सिद्ध करना नहीं है। उद्देश्य है अपने गुरू को प्रणाम करने की कोशीश करना। और साहबश्री ने कहा है, "चाहें तो

Father and Teacher बाप और मास्टर

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एक मास्टर साहब, जो प्राथमिक विद्यालय में पढ़ाते थे अपने बेटे के साथ स्कूल निकल रहे थे। बेटा भी उन्हीं के स्कूल में पढ़ता था। तभी मास्टर साहब की बीवी बोली कि, ब्लाउज का कपड़ा और नाप लेते जाइये, रास्ते में दर्जी को देते हुए चले जाइयेगा। मास्टर साहब ने कपड़ा और नाप ले तो लिया लेकिन, जल्दीबाजी में दर्जी को देना भूल गए और स्कूल पहुँच गए। स्कूल में जब पढ़ा रहे थे, तभी उनके बेटे को याद आया। बोला, मम्मी ने जो ब्लाउज का कपड़ा दिया था, दर्जी को देने, आपने तो दिया ही नहीं। मास्टर साहब बोले, जाते समय दे देंगे। बेटा बोला, लेकिन मम्मी तो बोली थी कि, देते हुए जाइयेगा! कोई बात नहीं, जाते समय दे देंगे! बेटा- आते समय दे देते तो... मास्टर साहब को गुस्सा आ गया। बोले, अबे गधे, यहाँ मैं तुम्हारा बाप नहीं हूँ, शिक्षक हूँ... तो जो शिव भगवान हैं, वही गुरु भी हैं। परमपिता भी और परमगुरु भी। हम उनके सामने क्या बनकर जाते है, किस भाव में जाते हैं, परिणाम उसपर निर्भर करता है। रह गयी बात कृपा और दया की, तो जहाँ तक हम कुछ कर सकते हैं, वहाँ तक कृपा और जहाँ हम कुछ कर ही नहीं सकते, वहाँ दया की जरुरत होती है। वही शिव, भगवान के

Prosperity समृद्धि

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अक्सर बाहर से समृद्ध दिखने वाले लोग, अंदर से दरिद्र होते हैं। ऐसा नहीं है कि बाहर से समृद्ध दिखने वाले सभी लोग अंदर से दरिद्र होते हैं, लेकिन अधिकांश मामलों में ऐसा ही होता है। आखिर क्यों? क्योंकि लोग समझते हैं कि, केवल आर्थिक समृद्धि से ही सुख-शांति पायी जा सकती है? मैं आर्थिक समृद्धि के महत्व से इनकार नहीं कर रहा हूँ। अपनी जगह यह भी आवश्यक है और इसके लिए भी प्रयास करना गलत नहीं है। लेकिन, जरा सोचिये, केवल आर्थिक विकास कर लेने से ही जीवन की सारी समस्याएं ख़त्म हो जाती हैं? क्या हमारे "विचार" भी समृद्ध नहीं होने चाहिये? क्या हमारे "भाव" भी समृद्ध नहीं होने चाहिये? क्या हमारा "अंतर्मन" भी समृद्ध नहीं होना चाहिये? क्या आतंरिक समृद्धि के बगैर, आत्मसंतुष्टि संभव है? मेरे विचार से तो बिना "सम्यक" (आतंरिक और बाह्य) समृद्धि के हमारी दरिद्रता समाप्त नहीं हो सकती। तो सम्यक समृद्धि पाने के लिये, हम क्या करें? इसके लिये हमें "सम्यक ज्ञान" की जरुरत है जो सिर्फ एक सबल गुरु दे सकते हैं, जिनमें हमारे स्थूल और सूक्ष्म को प्रभावित करने की शक्ति हो। जो ह

जब मैं एक गुरुभाई से मिला

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विगत 1 अक्टूबर 2015 को मैं एक गुरुभाई से मिला। नाम है सुरेन्द्र गुरुभाई। घर-पोठिया, फारबिसगंज। उनसे मिलने की इच्छा पिछले 15-20 दिनों से जोर मार रही थी। वैसे तो पिछले एक साल में, मैं उनसे कम से कम 30 से 40 बार मिल चुका हूँ। लेकिन कभी भी अकेले उनसे बात नहीं हुई थी। हर बार किसी न किसी साप्ताहिक में या छोटे-बड़े कार्यक्रमों में। पता नहीं क्यों पिछले कुछ दिनों से उनसे अकेले में मिलने की इच्छा जोर पकड़ रही थी। तो पिछले 1 अक्टूबर को जब मैं कटिहार से लौट रहा था, तो मेरी बाइक उनके घर की ओर मुड़ गयी। जब गाड़ी मुड़ ही गयी, तो मेरे मन में ये चलने लगा कि, उनसे बात क्या की जायेगी? तभी मेरे मन में 2 जिज्ञासाएँ आयी, जो पिछले 2-3 दिनों से मेरे मन में चल रही थीं। जब मैं उनके घर पहुंचा, तो मुझे उम्मीद नहीं थी कि वो मुझे घर पर मिलेंगे। दिन डूबने में 1 घंटा से भी कम समय बचा था और इस वक्त वो कहीं न कहीं गुरुकार्य कर रहे होते हैं, या घर से निकल चुके होते हैं। मुझे आश्चर्य हुआ यह देखकर कि, सुरेन्द्र भैया और उनकी पत्नी मिलकर बांस के बर्तन बना रहे थे। क्योंकि मैं सोचता था कि, भैया अपना सारा काम-धंधा छोड़कर केवल