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Showing posts from December, 2015

Kathorta bhi Daya कठोरता भी दया

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गुरु की कठोरता भी दया है! गुरु आखिर कठोरता करते हैं तो क्यों? किसके हित में? निश्चय ही शिष्य को दृढ़ बनाना ही गुरु की कठोरता का उद्देश्य होगा। वास्तव में गुरु का दयाभाव ही गुरुभाव है। जो प्रतीत होता है कि, कठोरता है, वह कठोरता नहीं दया ही है। क्योंकि इस कठोरता का परिणाम अत्यंत सुन्दर होता है। हालाँकि तात्कालिक रूप से यह कष्टकर लग सकता है। एक बात तो निश्चित है कि, परीक्षा लेने से पूर्व, शिष्य को परीक्षा के योग्य बनाया जाता है, जो बिना गुरुदया के संभव ही नहीं है। कोई भी गुरु शिष्य की उतनी ही परीक्षा लेते हैं, जितनी के लायक शिष्य को समझते हैं। ये अलग बात है कि, शिष्य को अपनी योग्यता का तबतक पता नहीं चलता है, जबतक वह परीक्षा की घड़ियों से सफलता पूर्वक निकल नहीं जाता है। आखिर पास भी तो गुरु ही करवाते हैं। यह भी तो गुरुदया ही है। उससे भी पहले अगर शिव-गुरु की बात की जाय तो, शिव का शिष्य बनना ही संभव नहीं है, अगर गुरु दया नहीं करें। परीक्षा तो शिष्य की न होगी! तो आइये हम शिव-शिष्य बनने का प्रयास करें। इसके लिये, शिव-गुरु की दया से, मानव-जाति को, इस कालखंड के प्रथम शिव-शिष्य, महामानव, वरेण्य गुरु

Why Need a Guru गुरु क्यों?

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मानव जीवन में गुरु की अनिवार्यता क्यों है? आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है। जबतक किसी चीज की आवश्यकता नहीं महसूस होती, तबतक उस चीज की खोज नहीं शुरू होती। अगर हमें महसूस हो जाय कि मानव जीवन में गुरु होना अनिवार्य है, तभी गुरु की तलाश प्रारम्भ होगी। तो सवाल यह है कि, मानव जीवन में गुरु की अनिवार्यता क्यों है? पहली बात तो यह है कि, आदमी के बच्चे को ज्ञान देना पड़ता है, जबकि जानवर के बच्चे को नहीं। हम देखते हैं कि, जानवरों के बच्चे चलना, माँ का दूध पीना, यहाँ तक कि तैरना भी, स्वयं सीख जाते हैं, जबकि आदमी के बच्चे को सिखाना पड़ता है। दूसरी बात यह है कि, मानव जीवन में भटकाव ज्यादा है। जीवन में जो कुछ भी पाने के लिये हम भटकते रहते हैं, वह वास्तु पा लेने के बाद भी अंततः निराशा ही हाथ आती है। कहीं न कहीं हमारा अंतर्मन जो ढूंढ रहा होता है, उसे हम समझ नहीं पाते और एक स्थिति ऐसी आती है, जब हमारा मन हारता है। जब मन थकता है, तब उसे किसी ऐसी सत्ता की जरुरत महसूस होती है, जिसमें खींचने की शक्ति हो। अर्थात्, गुरूत्व हो। अक्सर हमारा बाहरी मन, जो जागतिक आकर्षण में बँधा हुआ है, हमें उन रास्तों में भटकाता

Command of the God ईश्वर की आज्ञा

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जहाँ तक मेरी समझ है, सारे पैगम्बरों या ऋषियों का एक ही सन्देश है कि, "ईश्वर की आज्ञा माननी चाहिये"। अब गौर कीजिए आज्ञा पालन करने वाला ही शिष्य हो सकता है। ईश्वर की आज्ञा पालन करना ही धर्म है जिसे अलग भाषा में इस्लाम कहा गया है। जैसे कहा जाता है कि धर्म का अर्थ संप्रदाय नहीं है, उसी तरह कहा जाता है कि इस्लाम कोई फिरका नहीं है। अब देखिये कि अल्लाह का हुक्म मानने वाले को मुस्लिम कहा गया है और ईश्वर की आज्ञा पालन करनेवाला ही शिव-शिष्य है। तो हम देखते हैं कि "सत्य" एक ही है, चाहे उसे जो देखे, जब देखे। Truth is the same thing, whoever sees it, whenever sees it. "सत्य हमेशा अपरिवर्तित रहता है"। जो कभी नहीं बदलता उसे ही सनातन कहते हैं। इसीलिये कहा गया है कि, "सत्यमेकं मुनिर्बहुधा वदन्ति"। सत्य एक ही है, मुनि अलग अलग तरीके से बोलते हैं। (ये अलग बात है कि, लोगों ने सन्देश की जगह संदेशवाहकों को ही पकड़ लिया। अगर सन्देश को पकड़ते तो मेरा तेरा नहीं होता, क्योंकि सन्देश तो एक ही है।) सत्य की समझ केवल ईश्वर की दया से प्राप्य है। दिक्कत यह है कि लोग ईश्वर के भो

सबसे बड़ा भोग

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दुनियां का सबसे बड़ा भोग क्या है? रानीपतरा (पूर्णियां, बिहार) के बड़े ही प्यारे गुरुभाई आशीष भैया गुरु-चर्चा कर रहे थे। लोग सम्मोहित होकर सुन रहे थे। सौभाग्य से मैं भी सामने ही बैठा हुआ था। उसी दरम्यान आशीष भैया ने मुझसे पूछ दिया, "दुनियां का सबसे बड़ा भोग क्या है"? मैंने इस विषय पर पहले कभी नहीं सोचा था और न ही इस सवाल का जवाब मैं जानता था उस समय तक। लेकिन देखिये मेरे गुरु शिव की दया। जैसे ही मुझसे सवाल पूछा गया, मेरे मुंह से निकल गया, "लोगों का सम्मान पाना"। आशीष भैया ने कहा, हाँ सम्मान पाना। सम्मान पाना ही दुनियां का सबसे बड़ा भोग है। लोग पैसा भी कमाना चाहते हैं, तो उसके पीछे सम्मान पाने की इच्छा ही मूल कारण होता है। क्योंकि लोग देखते हैं कि, पैसे वालों को सम्मान मिलता है। फिर उन्होंने कहा कि सम्मान भी दो तरह से मिलता है। मान लीजिये कि, यहाँ से किसी बहुत ही बड़ी कंपनी का नामी-गिरामी मालिक गुजरता है, तो लोग उसे भी सम्मान देंगे, लेकिन उस सम्मान में स्वार्थ छिपा रहेगा। मन में कहीं न कहीं लोभ रहेगा। लेकिन अगर किसी शिव-गुरु-कार्य में लगे हुए गुरुभाई को सम्मान मिलता है