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Showing posts from July, 2022

तौहीद (एकेश्वरवाद) क्या है?

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  तौहीद (एकेश्वरवाद) क्या है? दृश्य हो या अदृश्य, साकार हो या निराकार, हर रूप में उसी विश्वरूप (ईश्वर) को देखना ही एकेश्वरवाद (तौहीद) है। "सकल राममय यह जग जानी" इसीलिए जिस स्वरूप से भी प्रेम हो, पूजा केवल ईश्वर की ही होती है। केवल अल्पविकसित चेतना के लोग ही किसी की पूजा पद्धति पर निषेध लगा सकते हैं, क्योंकि उन्हें इतनी भी समझ नहीं है कि हर व्यक्ति की चेतना का स्तर और हर व्यक्ति का व्यक्तित्व अलग-अलग होता है, इसीलिए हर व्यक्ति ईश्वर के एक ही स्वरूप के प्रति आकर्षित नहीं हो सकता। किसी पर भी अपनी पसंद जबरदस्ती थोपना केवल और केवल पागलपन है। अध्यात्म और संस्कृति से सुसम्पन्न भारत के लोगों को कबीलाई पागलपन की नकल करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जिनके पूर्वजों ने किसी मजबूरी के तहत अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का त्याग किया था, उन्हें घर वापसी करनी चाहिए, अन्यथा किसी कल्पनालोक की आशा में यथार्थ लोक को नष्ट होते देखने की मूर्खता ही एकमात्र विकल्प बचेगा। "स्वरग नरक एही जग माही, करमहीन नर पावत नाहीं" प्रेम की मनोदशा ही स्वर्ग है और घृणा की मनोदशा ही नर्क है। "दया धरम का म

प्यार या व्यापार

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लोभ या भय से व्यापार किया जाता है, प्यार नहीं। लोभ चाहे स्वर्ग का हो या भय हो नर्क का, या कोई और, अगर पूजा या इबादत का कारण लोभ या भय है, तो यह पूजा है ही नही! क्योंकि ईश्वर से प्रेम को ही भक्ति कहते हैं और भक्तिवश किया गया कोई भी कर्म ही पूजा है। अगर हृदय में ईश्वर के प्रति प्रेम जग जाए, तो बिन मांगे ही वो सबकुछ मिल जाता है, जो मांगने से भी नही मिलता। शिष्य के हृदय में शिव (ईश्वर) के प्रति प्रेम जग जाए, किसी भी गुरु का यही काम है। शिवगुरु का भी यही काम है। आज के परिवेश में तमाम समस्याओं का मूल कारण है, "मानवीय चेतना का अधःपतन", जिसकी वजह से लोगों में समझ की कमी हो गई है और लोग तुच्छ-स्वार्थी हो गए हैं। मानवीय चेतना के पुनरुत्थान के लिए प्रबल "गुरूत्व" की आवश्यकता है, ठीक उसी प्रकार जैसे किसी गहरी खाई में गिर चुके किसी वाहन को निकालने के लिए क्रेन की आवश्यकता होती है, टोचन की नहीं। गुरूत्व का अर्थ ही होता है, "खींचने की ताकत"। "गुरु वही हो सकते हैं जिनमें गुरूत्व हो"। ईश्वर अर्थात "सूक्ष्मातिसूक्ष्म परम चैतन्यात्मा" से ज्यादा गुरूत्व कि

जरूरत या पसंद

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  इस दुनियां को अच्छी चीजें देना सबसे कठिन काम है, क्योंकि जरुरत है जो लोगों की वो उनकी पसंद नहीं और पसंद है जो लोगों की वो उनकी जरूरत नहीं। उदाहरण के लिए, उपचार के प्राकृतिक नियमों का पालन करते हुए, अगर कम से कम दवा का प्रयोग करते हुए दबे हुए रोगों को बाहर निकाल कर वर्तमान उपचार के साथ साथ भविष्य में होने वाले जटिलताओं से भी बचाव करने वाली चिकित्सा, जो लोगों की जरूरत है, वो आम लोगों की पसंद नहीं है, जबकि भारी मात्रा में बाहरी हस्तक्षेप कर, निकल रहे विकारों को दबा कर, भविष्य में होने वाली गंभीर जटिलताओं का कारण बनने वाली पद्धति आम लोगों की पसंद है! उसी तरह शुद्ध देसी गायों के स्वास्थ्यवर्धक दूध की जगह, विदेशी गायों का अस्वास्थ्यकर दूध, अथवा मिलावट वाले तथा कृत्रिम नकली दूध आम लोगों की पसंद है। जानते हैं क्यों? क्योंकि अधिकांश लोग या तो नासमझ हैं या खुद कमीने हैं। कैसे? अपवादों को छोड़ दें तो आज के दौर में लगभग हर आदमी अपने फायदे के लिए किसी और के नुकसान की कोई परवाह नहीं करता। यहां तक कि मौका मिलते ही गिरी हुई हरकत करता है अगर पकड़े जाने का भय नहीं हो। तो 2 नंबर लोगों को ईश्वर ही भटका

सफलता का पैमाना

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 सफलता का पैमाना यह नहीं कि इस जगत से आपने कितना लिया है, बल्कि सफलता का पैमाना यह है कि इस जगत को आपने कितना दिया है। हालांकि देनेवाले तो केवल ईश्वर हैं, लेकिन क्या हममें प्रदाता बनने की, माध्यम बनने की चाहत है? क्या हम लेने की जगह देने को उत्सुक हैं? या केवल दुनियाँ की नजर में स्वयं को सफल सिद्ध करने के लिए, इस जगत का अधिकाधिक दोहन और शोषण करने की ही प्रवृत्ति है? लोगों से प्रशंसा पाने के लिए दिखावा वही करता है, जिसकी अपनी अंतरात्मा उसकी प्रशंसा नहीं करती। आपकी अंतरात्मा आपकी प्रशंसा तब करती है, जब आप बिना किसी अपेक्षा के, बिना किसी लोभ के, यहाँ तक कि बिना किसी की प्रशंसा पाने की चाहत लिए, आप कोई ऐसा कार्य करते हैं जो लोकहित में हो। अब लोकहित भी तो जगदीश्वर ही कर सकते हैं! समाधान अर्थात कल्याण करने का सामर्थ्य तो केवल ईश्वर में है! इसीलिए तो उन्हें शिव कहा गया है! तो हम आप केवल इतना ही करने का प्रयास कर सकते हैं कि लोगों का जुड़ाव उस परमसत्ता से हो सके। इसके लिए भी उस परमगुरु की दया की आवश्यकता है। ।।प्रणाम।। "आइये भगवान शिव को 'अपना' गुरु बनाया जाय"... 3 सूत्रों की