Command of the God ईश्वर की आज्ञा
जहाँ तक मेरी समझ है, सारे पैगम्बरों या ऋषियों का एक ही सन्देश है कि,
"ईश्वर की आज्ञा माननी चाहिये"।
अब गौर कीजिए आज्ञा पालन करने वाला ही शिष्य हो सकता है। ईश्वर की आज्ञा पालन करना ही धर्म है जिसे अलग भाषा में इस्लाम कहा गया है।
जैसे कहा जाता है कि धर्म का अर्थ संप्रदाय नहीं है, उसी तरह कहा जाता है कि इस्लाम कोई फिरका नहीं है।
अब देखिये कि अल्लाह का हुक्म मानने वाले को मुस्लिम कहा गया है और ईश्वर की आज्ञा पालन करनेवाला ही शिव-शिष्य है।
तो हम देखते हैं कि "सत्य" एक ही है, चाहे उसे जो देखे, जब देखे। Truth is the same thing, whoever sees it, whenever sees it. "सत्य हमेशा अपरिवर्तित रहता है"।
जो कभी नहीं बदलता उसे ही सनातन कहते हैं।
इसीलिये कहा गया है कि, "सत्यमेकं मुनिर्बहुधा वदन्ति"। सत्य एक ही है, मुनि अलग अलग तरीके से बोलते हैं। (ये अलग बात है कि, लोगों ने सन्देश की जगह संदेशवाहकों को ही पकड़ लिया। अगर सन्देश को पकड़ते तो मेरा तेरा नहीं होता, क्योंकि सन्देश तो एक ही है।)
सत्य की समझ केवल ईश्वर की दया से प्राप्य है।
दिक्कत यह है कि लोग ईश्वर के भोगदाता स्वरुप से जुड़े हुए हैं, मोक्षदाता स्वरुप से नहीं। अर्थात लोग ईश्वर से केवल भौतिक वस्तुओं की कामना करते हैं, समझ या ज्ञान की नहीं।
जब समझ ही नहीं रहेगी तो हमें कैसे ज्ञान होगा कि ईश्वर क्या चाहते हैं? ईश्वर की आज्ञा क्या है?
हमारा आपका मन जागतिक आकर्षण में बंधा हुआ होने की वजह से इस दिशा में चलता ही नहीं।
स्वाभाविक रूप से हमारा आपका मन जगत से जुड़ा हुआ है, जगदीश्वर से नहीं।
हमारा आपका मन ईश्वर से जुड़ जाए, जो जगद्गुरु भी हैं, उसे "अपना" मान ले, इसके लिये, शिव-गुरु की दया से, मानव-जाति को, इस कालखंड के प्रथम शिव-शिष्य, महामानव, वरेण्य गुरु-भ्राता, साहबश्री हरीन्द्रानंद जी के माध्यम से प्रदत्त 3 सूत्र सहायक हैं।
ये उसी तरह है, जैसे एक समय संवादों का आदान-प्रदान चिट्ठियों के माध्यम से होता था, फिर लैंडलाइन फोन आ गए, उसके बाद मोबाइल और अब इंटरनेट।
लौकिक संवादों के आदान-प्रदान के लिए उत्तरोत्तर साधनों का विकास हुआ है और लोगों ने थोड़ी हिचक के बाद आधुनिकतम साधनों को स्वीकार कर लिया और पुराने साधन पीछे छूटते गए।
ठीक उसी प्रकार यहाँ भी हो रहा है।
ये अलग बात है कि, यहाँ अज्ञात से संपर्क स्थापित करना है, इसीलिये हिचक या अविश्वास भी ज्यादा है, जो स्वाभाविक है।
जांचने के ख़याल से भी 3 सूत्रों के माध्यम से ईश्वर के साथ गुरु-शिष्य का संबंध, सहज परिणामदायी है और विश्वास तो परिणाम मिलने के बाद ही आएगा।
"ईश्वर की आज्ञा माननी चाहिये"।
अब गौर कीजिए आज्ञा पालन करने वाला ही शिष्य हो सकता है। ईश्वर की आज्ञा पालन करना ही धर्म है जिसे अलग भाषा में इस्लाम कहा गया है।
जैसे कहा जाता है कि धर्म का अर्थ संप्रदाय नहीं है, उसी तरह कहा जाता है कि इस्लाम कोई फिरका नहीं है।
अब देखिये कि अल्लाह का हुक्म मानने वाले को मुस्लिम कहा गया है और ईश्वर की आज्ञा पालन करनेवाला ही शिव-शिष्य है।
तो हम देखते हैं कि "सत्य" एक ही है, चाहे उसे जो देखे, जब देखे। Truth is the same thing, whoever sees it, whenever sees it. "सत्य हमेशा अपरिवर्तित रहता है"।
जो कभी नहीं बदलता उसे ही सनातन कहते हैं।
इसीलिये कहा गया है कि, "सत्यमेकं मुनिर्बहुधा वदन्ति"। सत्य एक ही है, मुनि अलग अलग तरीके से बोलते हैं। (ये अलग बात है कि, लोगों ने सन्देश की जगह संदेशवाहकों को ही पकड़ लिया। अगर सन्देश को पकड़ते तो मेरा तेरा नहीं होता, क्योंकि सन्देश तो एक ही है।)
सत्य की समझ केवल ईश्वर की दया से प्राप्य है।
दिक्कत यह है कि लोग ईश्वर के भोगदाता स्वरुप से जुड़े हुए हैं, मोक्षदाता स्वरुप से नहीं। अर्थात लोग ईश्वर से केवल भौतिक वस्तुओं की कामना करते हैं, समझ या ज्ञान की नहीं।
जब समझ ही नहीं रहेगी तो हमें कैसे ज्ञान होगा कि ईश्वर क्या चाहते हैं? ईश्वर की आज्ञा क्या है?
हमारा आपका मन जागतिक आकर्षण में बंधा हुआ होने की वजह से इस दिशा में चलता ही नहीं।
स्वाभाविक रूप से हमारा आपका मन जगत से जुड़ा हुआ है, जगदीश्वर से नहीं।
हमारा आपका मन ईश्वर से जुड़ जाए, जो जगद्गुरु भी हैं, उसे "अपना" मान ले, इसके लिये, शिव-गुरु की दया से, मानव-जाति को, इस कालखंड के प्रथम शिव-शिष्य, महामानव, वरेण्य गुरु-भ्राता, साहबश्री हरीन्द्रानंद जी के माध्यम से प्रदत्त 3 सूत्र सहायक हैं।
ये उसी तरह है, जैसे एक समय संवादों का आदान-प्रदान चिट्ठियों के माध्यम से होता था, फिर लैंडलाइन फोन आ गए, उसके बाद मोबाइल और अब इंटरनेट।
लौकिक संवादों के आदान-प्रदान के लिए उत्तरोत्तर साधनों का विकास हुआ है और लोगों ने थोड़ी हिचक के बाद आधुनिकतम साधनों को स्वीकार कर लिया और पुराने साधन पीछे छूटते गए।
ठीक उसी प्रकार यहाँ भी हो रहा है।
ये अलग बात है कि, यहाँ अज्ञात से संपर्क स्थापित करना है, इसीलिये हिचक या अविश्वास भी ज्यादा है, जो स्वाभाविक है।
जांचने के ख़याल से भी 3 सूत्रों के माध्यम से ईश्वर के साथ गुरु-शिष्य का संबंध, सहज परिणामदायी है और विश्वास तो परिणाम मिलने के बाद ही आएगा।
ईश्वर के गुरू स्वरुप से जुड़ने के लिये भी, शिव-गुरु की दया से, मानव-जाति को, इस कालखंड के प्रथम शिव-शिष्य, महामानव, वरेण्य गुरु-भ्राता, साहबश्री हरीन्द्रानंद जी के माध्यम से प्रदत्त 3 सूत्र सहायक हैं।
1. दया मांगना:
"हे शिव आप मेरे गुरु हैं, मैं आपका शिष्य हूँ, मुझ शिष्य पर दया कर दीजिये" (मन ही मन)
2. चर्चा करना:
दूसरों को भी यह सन्देश देना कि, "शिव मेरे गुरु हैं, आपके भी हो सकते हैं"
3. नमन करना:
अपने गुरु को प्रणाम निवेदित करने की कोशीश करना। चाहें तो नमः शिवाय का प्रयोग कर सकते हैं। (मन ही मन, सांस लेते समय नमः तथा छोड़ते समय शिवाय)
1. दया मांगना:
"हे शिव आप मेरे गुरु हैं, मैं आपका शिष्य हूँ, मुझ शिष्य पर दया कर दीजिये" (मन ही मन)
2. चर्चा करना:
दूसरों को भी यह सन्देश देना कि, "शिव मेरे गुरु हैं, आपके भी हो सकते हैं"
3. नमन करना:
अपने गुरु को प्रणाम निवेदित करने की कोशीश करना। चाहें तो नमः शिवाय का प्रयोग कर सकते हैं। (मन ही मन, सांस लेते समय नमः तथा छोड़ते समय शिवाय)

Comments
Post a Comment