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Showing posts from March, 2015

भक्ति या शिष्यता

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साहबश्री से मैंने जिज्ञासा किया था, रानीपतरा में, 22.11.2013 को, "शिव भक्ति और शिव शिष्यता में क्या अंतर है?"। साहेब ने बताया- शिव भक्ति ही शिव शिष्यता का उद्देश्य है। "भगवान से प्रेम" को ही भक्ति कहते हैं। जिस तरह बच्चे से प्रेम को स्नेह, बड़े से प्रेम को श्रद्धा कहते हैं, उसी तरह "ईश्वर से प्रेम" को ही भक्ति कहते हैं। ईश्वर को ही शिव कहा गया है। लोगों को भगवान से नहीं अपने काम से प्रेम है, इसीलिये भगवान के पास एक्सचेंज ऑफर लेकर जाते हैं। शिष्य के हृदय में भगवान के प्रति प्रेम जग जाये, किसी भी गुरु का यही काम है। शिव गुरु का भी यही काम है। जैसे बच्चे को खेलने से प्रेम होता है और शिक्षक का काम है कि उसे पढ़ने से प्रेम हो जाये। आज हमारी आपकी चेतना पतन के गर्त में जा चुकी है, इसीलिये हमें एक सबल गुरु की आवश्यकता है। शिव से अधिक सबल गुरु और कौन हो सकते हैं? तो आइये जगद्गुरु शिव को ही अपना गुरु बना लिया जाय। इसके लिये, शिव-गुरु की दया से, मानव-जाति को, इस कालखंड के प्रथम शिव-शिष्य, महामानव, वरेण्य गुरु-भ्राता, साहबश्री हरीन्द्रानंद जी के माध्यम से प्रदत्त

ब्रह्मा विष्णु महेश

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ब्रह्मा, विष्णु या महेश क्या हैं? देव या देवी का क्या अर्थ है? सूक्ष्म सत्ता को देव तथा सूक्ष्म शक्ति को देवी कहते हैं। ईश्वर को त्रिगुण ब्रह्म भी कहा गया है, क्योंकि वो सृजन, पालन और संहार, तीनो कार्य कर सकते हैं। इन्ही 3 गुणों को क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा इन 3 तरह की सूक्ष्म शक्तियों को सरस्वती, लक्ष्मी तथा काली कहा गया है। इन सभी को धारण करने वाले को परब्रह्म परमेश्वर या शिव कहा गया है। तस्वीरों को देखकर भ्रम होता है कि, इन देवों या देवियों का ऐसा स्वरुप है, जबकि तस्वीरें इनके गुणों को प्रदर्शित करने के लिए बनायी गयी थीं, न कि स्वरुप को। ईश्वर का साकार रूप यह चराचर ही है, जिसमे हम और आप भी आते हैं। इन बातों को अनुभव ज्ञान से ही समझ जा सकता है, जो केवल परमात्मा की दया से ही संभव है। परमात्मा या शिव का गुरु भाव ही उनका दया भाव है, जो प्रसारित तो सबके लिए होता आ रहा है, लेकिन उसको ग्रहण वही कर सकता है, जो शिष्य भाव में है। शिव को "अपना" गुरु बनाने के लिए, शिव-गुरु की दया से, इस कालखंड के प्रथम शिव-शिष्य, वरेण्य गुरुभ्राता, महामानव, साहबश्री हरीन्द्रानंद जी के माध्यम

The Supreme Dynamis सूक्ष्मातिसूक्ष्म परम चैतन्यात्मा

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ईश्वर क्या है? हम सभी (कुछ अपवादों को छोड़कर) मानते हैं, कि ईश्वर है और हम सभी ने अपने परिवेश के आधार पर, ईश्वर की अवधारणाएं बना रखी हैं। ईश्वर के प्रति हमारी अधिकांश धारणाएं पत्यारोपित हैं। यानि कि, बहरी ज्ञान पर आधारित हैं। ईश्वर की हमारी परिकल्पना सुनी और पढ़ी हुई बातों पर आधारित हैं। हमने मान लिया है कि, ईश्वर के होने का वास्तविक अनुभव प्राप्त करना और उस परम सत्ता से संवाद कायम करना, केवल ऋषियों और नबियों का काम है और हम आमलोग इस अधिकार से वंचित हैं। जबकि सारे ऋषियों या नबियों ने आजीवन यही प्रयास किया कि, हम सभी उस परम चेतना से जुड़कर अपना और सबका कल्याण कर सकें। लेकिन हुआ ये कि हम ईश्वर के बजाय, उसके संवाददाताओं से जुड़ गये और तेरा मेरा करने लगे। खैर; यहाँ सवाल है कि क्या हम और आप ईश्वर के वास्तविक स्वरुप का अनुभव प्राप्त कर सकते हैं। अगर हाँ, तो कैसे? इस तरह का ज्ञान प्राप्त करके हमें मिलेगा क्या? क्या ईश्वर से हमारा संवाद स्थापित हो सकता है? क्या इस प्रक्रिया से हमारे लौकिक और पारलौकिक मनोरथ पूर्ण हो सकते हैं। जहाँ तक मेरे खुद के अनुभव का सवाल है, तो उपरोक्त सारे सवालों का जवाब

ध्यान क्या है?

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ध्यान क्या है? जब आप कहते हैं, ध्यान से सुनो, तो आपका मतलब ये नहीं होता कि, आसन लगाकर बैठ जाओ और आँख बंद कर लो। उल्टे ध्यान से सुनने का मतलब है, आँखों से आँखें मिलाकर बात सुनो। मैं आँख बंद करके बैठा हूँ और मेरा ध्यान मेरे पुत्र पर या पत्नी पर या संसार में और कहीं भटकता रहता है, तो क्या इसे ध्यान कहेंगे? वास्तव में ध्यान का सम्बन्ध चर्चा से है। हम जिसकी चर्चा करते हैं, हमारा ध्यान तुरत उसपर जाता है। उदहारण के लिए अगर हम सचिन तेंदुलकर की चर्चा करेंगे तो हमारा ध्यान तुरत सचिन तेंदुलकर पर जायेगा। अगर मैं दिनभर राजनीति की चर्चा करूँगा, तो अकेले में भी मेरा ध्यान उन्ही बातों पर जायेगा, जिनकी चर्चा मैं बार बार करता हूँ। इतना ही नहीं जिस विचार की चर्चा हम बार बार करते हैं उस विचार की आवृत्ति हमारे मन में बार बार होती है और वह विचार घनीभूत होकर भाव में बदल जाता है, जो अधिक ठोस होता है और जल्दी नहीं टूटता। निष्कर्ष ये कि हम जिस चीज पर ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं, हमें उस चीज या बात या विचार की चर्चा बार बार करनी पड़ेगी, तभी जब हम आँख बंद करके भी बैठेंगे, तो ध्यान उसपर जायेगा, जिसपर हम ले जाना