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Showing posts from October, 2020

मूल कारण

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  ।।प्रणाम।। आज के परिवेश में तमाम समस्याओं का मूल कारण है, मानवीय चेतना का अधःपतन , जिसकी वजह से लोग स्वार्थी हो गए हैं। मानवीय चेतना के पुनरुत्थान के लिए प्रबल "गुरूत्व" की आवश्यकता है, ठीक उसी प्रकार जैसे किसी गहरी खाई में गिर चुके किसी वाहन को निकालने के लिए क्रेन की आवश्यकता होती है, टोचन की नहीं। गुरूत्व का अर्थ ही होता है, "खींचने की ताकत"। "गुरु वही हो सकते हैं जिनमें गुरूत्व हो"। ईश्वर अर्थात "सूक्ष्मातिसूक्ष्म परम चैतन्यात्मा" से ज्यादा गुरूत्व किसमें हो सकता है? शिव गुरु की शिष्यता परिणामदायी है, यह प्रायोगिक तौर पर सिद्ध हो चुका है। सतही तौर पर नहीं, स्थायी समाधान के लिए, समस्या के मूल कारण को दूर करने हेतु... "आइये भगवान शिव को 'अपना' गुरु बनाया जाय"... 3 सूत्रों की सहायता से: 1. दया मांगना: "हे शिव आप मेरे गुरु हैं, मैं आपका शिष्य हूँ, मुझ शिष्य पर दया कर दीजिये" (मन ही मन)। 2. चर्चा करना: दूसरों को भी यह सन्देश देना कि, "आइये भगवान शिव को 'अपना' गुरु बनाया जाय"। 3. नमन करना: अपने गुरु क

Why the God as Guru शिव ही गुरु क्यों

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शिव ही गुरु क्यों? क्या मनुष्य गुरु नहीं हो सकते? बिलकुल हो सकते हैं। यहाँ तक कि, हर मनुष्य गुरु भी है और शिष्य भी। शिव को अपना गुरु बनाने का मतलब, बाँकी गुरुओं की उपेक्षा करना नहीं है। उलटे जगद्गुरु को अपना गुरु बनाने से जगत् का हर चराचर गुरु हो जाता है, चाहे वह स्थूल हो, सूक्ष्म हो, या सूक्ष्मातिसूक्ष्म। लेकिन मनुष्य को गुरु बनाने के लिये, पहले से भी पात्रता की आवश्यकता होती है । जैसे कि, अगर किसी मेडिकल कॉलेज में पढ़ना है, तो पहले से ही 10+2 पास होना चाहिये, बायोलॉजी  से और अगर इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ना है मैथमेटिक्स से। साथ में फिजिक्स, केमिस्ट्री, इंग्लिश इत्यादि। यही कारण है कि, जितने भी शरीरधारी मनुष्य प्रसिद्ध सद्गुरु हुए, उनके गिने चुने ही शिष्य प्रसिद्ध हुए, ज्यादतर मामलों में 1 ही। जैसे कि, रामानंद स्वामी के 1 कबीरदास या रामकृष्ण परमहंस के विवेकानंद। क्योंकि पूर्व-पात्रता वाले शिष्यों का मिलना, अत्यंत दुर्लभ बात है। बात जब आध्यात्मिक गुरु की आती है, तो गुरु मिलना ही दुर्लभ है और योग्य शिष्य मिलना तो और भी दुर्लभ। भौतिक गुरु भौतिक ज्ञान दे सकते हैं, लेकिन आध्यात्मिक ज्ञान के