ज्ञान और समझ

जिज्ञासा:

वागात्मक ज्ञान और बोधात्मक ज्ञान में क्या अंतर है?

प्रयास:

जहाँ तक मेरी समझ है,
ज्ञान जब बोध में उतर जाए, अर्थात् मन समझ जाये तभी वह कारगर होता है और इसी को बोधात्मक ज्ञान कहते हैं।

बोल रहे हैं पर समझ नहीं रहे हैं, इसे वागात्मक ज्ञान कहते हैं।

जैसे कि "शिकारी आएगा, जाल बिछाएगा, दाना डालेगा, 'लोभ' से उसमें फंसना नहीं", सभी तोते रट रहे थे लेकिन समझ नहीं रहे थे, इसीलिए "लोभ" में फंस गए।

अब ये वाक्य तोतों के लिए वागात्मक ज्ञान था, लेकिन जिस व्यक्ति ने तोतों को यह वाक्य रटाया था उसके लिये बोधात्मक था।

तो ज्ञान तो ज्ञान ही है, निर्भर करता है, "ग्रहण करने की पात्रता" पर।

मेरे विचार से ग्रहण करने की पात्रता (समझदानी का कटोरा) को ही "समझ" कहते हैं।

तो वास्तविक ज्ञान जो बोध में उतर गया, समझ में आ गया, उसे समझ कह सकते हैं, लेकिन जो ज्ञान अभी जानकारी के स्तर पर ही है, सूचना के तल पर ही है, बोध में नहीं उतरा, उसे समझ नहीं कह सकते।

अब हर आदमी का समझदानी का कटोरा एक साइज़ का नहीं होता।

यानि कि हर आदमी की चेतना का स्तर (level of perception) एक जैसा नहीं होता। इसकी वजह से एक बात का मतलब अलग-अलग लोग अलग तरीके से निकालते हैं।

एक बार एक डॉक्टर साहब एक शराबखाने में गए और शराबियों को एक प्रयोग कर के दिखाया।

उन्होंने एक जिन्दा चाली (earthworm) को पहले साफ़ पानी में डाला। चाली को कुछ नहीं हुआ। उसी चाली को फिर शराब में डाला गया। चाली के टुकड़े टुकड़े हो गए।

उसके बाद डॉक्टर साहब ने शराबियों से पूछा, इस प्रयोग से आप लोगों को क्या समझ में आया?

पीछे से एक शराबी ने जवाब दिया, इससे तो यही समझ में आता है कि, शराब पीने से पेट का चाली मर जायेगा।

अब बोलिये, क्या डॉक्टर साहब यही समझाना चाहते थे?

इसीलिए कहा गया है:

:श्रुतिः विभिन्ना स्मृतयश्च भिन्ना

न एको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम्

धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां

महाजनो येन गतः स पन्थाः"

अर्थात्

जो सुना गया वो अलग-अलग हो जाता है। जो याद रखा गया वो भी अलग हो जाता है। एक भी मुनि नहीं है, जिसका वचन प्रमाण है। धर्म का तत्व गुहाओं में निहित है। महान लोग जिस रास्ते से गए हैं, वही मार्ग हैं।

निष्कर्ष यह कि ज्ञान उपलब्ध होते हुए भी "समझ" यानि जागृत चेतना परमावश्यक है।

अब देखते हैं कि यह "समझ" मिलेगा कहाँ से?

तो जितनी ही समझ हमें मिली है, कहाँ से मिली है?

हमारी आपकी "चेतना" का स्रोत क्या है?

परम-चेतना अर्थात् सूक्ष्मातिसूक्ष्म परम चैतन्यात्मा अर्थात् परमात्मा अर्थात् शिव ही हमारी आपकी चेतना के स्रोत हैं।

अब सब्जी की दुकान में हीरे तो नहीं मिल सकते न?

इसीलिए यदि समझ चाहिए तो स्रोत से जुड़ना ही पड़ेगा।

शरीरधारी गुरु ज्ञान दे सकते हैं। किताबों में भी ज्ञान है। लेकिन समझ केवल शिव-गुरु की दया से ही संभव है।

तो आवश्यकता यह है कि हम अपनी चेतना को परम चेतना से जोड़ने की कोशीश करें।

इसके लिए इस कालखंड के प्रथम शिव-शिष्य, वरेण्य गुरुभ्राता, साहबश्री हरीन्द्रानंदजी के माध्यम से प्रदत्त 3 सूत्र सहायक हैं:

1. दया मांगना:

हे शिव आप मेरे गुरु हैं, मैं आपका शिष्य हूँ, मुझ शिष्य पर दया कर दीजिये (मन ही मन)

2. चर्चा करना:

दूसरों को भी यह सन्देश देना कि, शिव मेरे गुरु हैं, आपके भी हो सकते हैं

3. नमन करना:

अपने गुरु को प्रणाम निवेदित करने की कोशीश करना। चाहें तो नमः शिवाय का प्रयोग कर सकते हैं (मन ही मन: साँस लेते समय नमः, छोड़ते समय शिवाय)

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