जब समय नहीं, चेतना पुकारती है — शिव को गुरु बनाने का क्षण
100, 200 या 400 वर्षों की प्रतीक्षा नहीं—
चार युगों के पश्चात धरती पर वह दुर्लभ अवसर आता है,
जब शिव केवल पूज्य नहीं रहते,
बल्कि गुरु-भाव में अवतरित होते हैं।
यह लेख किसी उत्सव, किसी तिथि या किसी बाह्य आयोजन का विवरण नहीं है।
यह चेतना के एक ऐसे द्वार की चर्चा है,
जिसे यदि समय रहते न पहचाना गया,
तो भीड़ में खड़े होकर भी हम चूक सकते हैं।
“समय बहुत कम है” —
यह चेतावनी भय नहीं जगाती,
यह जागरण की पुकार है।
जिज्ञासा का प्रथम सूत्र: क्या कुंभ केवल एक मेला है?
सामान्य धारणा कहती है—
कुंभ वह स्थान है जहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती मिलती हैं।
परंतु शिव-दृष्टि इससे आगे जाती है।
यदि त्रिवेणी बाह्य है,
तो उसका आंतरिक प्रतिबिंब भी होना चाहिए।
शास्त्रों, उपनिषदों और नाथ-परंपरा में
बार-बार यह संकेत मिलता है कि—
- गंगा → चेतना की निर्मल धारा
- यमुना → भाव की गहराई
- सरस्वती → मौन ज्ञान की सूक्ष्म धारा
जब ये तीनों अंदर मिलती हैं,
तभी अंतर कुंभ घटित होता है।
और तब—
जहाँ आप जाते हैं, वहीं कुंभ हो सकता है।
विचारोत्तेजक प्रश्न: क्या पुण्य–पाप ही साधना का लक्ष्य है?
यह लेख आपको एक असहज प्रश्न से रूबरू कराता है—
क्या शिव की शिष्यता
सिर्फ़ पुण्य संग्रह या पाप मुक्ति तक सीमित है?
उत्तर है — नहीं।
शिव भाव की साधना
इन अवधारणाओं से ऊपर उठने का मार्ग है।
- पुण्य–पाप → कर्म के स्तर पर
- शिव–शिष्य भाव → चेतना के स्तर पर
जहाँ शिव गुरु हैं,
वहाँ लेखा-जोखा नहीं,
रूपांतरण होता है।
शिव को ‘अपना’ गुरु बनाना — कोई अनुष्ठान नहीं, एक आंतरिक संकल्प
यहाँ कोई दीक्षा-विधि नहीं दी जा रही।
कोई बाह्य नियम नहीं थोपे जा रहे।
केवल तीन अत्यंत सरल, पर गहरे सूत्र—
🔱 सूत्र 1: दया माँगना (आंतरिक स्वीकृति)
“हे शिव, आप मेरे गुरु हैं।
मैं आपका शिष्य हूँ।
मुझ शिष्य पर दया कर दीजिए।”
- कोई उच्चारण अनिवार्य नहीं
- कोई भाषा बाध्य नहीं
- केवल मन की स्वीकृति
शिव से कुछ माँगना नहीं,
खुद को समर्पित करना।
🔱 सूत्र 2: चर्चा करना (चेतना का विस्तार)
जो अनुभूति भीतर जागे,
उसे दबाया नहीं जाता—
उसे साझा किया जाता है।
“आइये, भगवान शिव को ‘अपना’ गुरु बनाया जाय।”
यह प्रचार नहीं है।
यह स्मरण कराना है—
कि मार्ग खुला है।
🔱 सूत्र 3: नमन करना (अहं का विसर्जन)
नमन का अर्थ झुकना नहीं,
नमन का अर्थ है—
अहं को ढीला करना।
सरल अभ्यास:
- श्वास लेते समय — नमः
- श्वास छोड़ते समय — शिवाय
मन ही मन।
न कोई प्रदर्शन, न कोई दिखावा।
चेतावनी क्यों आवश्यक है?
लेख की शुरुआत में कहा गया—
इतना निश्चिंत होना भी सही नहीं।
क्यों?
क्योंकि—
- बाहरी मेलों का आकर्षण
- भीड़ का सम्मोहन
- परंपरा का शोर
इन सबमें
असली निमंत्रण कहीं खो सकता है।
जगत के मेलों में उलझकर
कहीं हम शिव के मौन संकेत न चूक जाएँ।
निष्कर्ष: यह लेख नहीं, एक स्मरण है
यह ब्लॉग पोस्ट कोई सिद्धांत नहीं देता।
यह कोई मत नहीं थोपता।
यह केवल स्मरण कराता है—
- कि शिव आज भी गुरु हैं
- कि शिष्यता आज भी संभव है
- और कि समय… वास्तव में बहुत कम है
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