भक्ति या शिष्यता


साहबश्री से मैंने जिज्ञासा किया था,
रानीपतरा में,
22.11.2013 को,
"शिव भक्ति और शिव शिष्यता में क्या अंतर है?"।
साहेब ने बताया- शिव भक्ति ही शिव शिष्यता का उद्देश्य है।
"भगवान से प्रेम" को ही भक्ति कहते हैं।
जिस तरह बच्चे से प्रेम को स्नेह, बड़े से प्रेम को श्रद्धा कहते हैं, उसी तरह "ईश्वर से प्रेम" को ही भक्ति कहते हैं।
ईश्वर को ही शिव कहा गया है।
लोगों को भगवान से नहीं अपने काम से प्रेम है, इसीलिये भगवान के पास एक्सचेंज ऑफर लेकर जाते हैं।
शिष्य के हृदय में भगवान के प्रति प्रेम जग जाये,
किसी भी गुरु का यही काम है।
शिव गुरु का भी यही काम है।
जैसे बच्चे को खेलने से प्रेम होता है और शिक्षक का काम है कि उसे पढ़ने से प्रेम हो जाये।
आज हमारी आपकी चेतना पतन के गर्त में जा चुकी है, इसीलिये हमें एक सबल गुरु की आवश्यकता है।
शिव से अधिक सबल गुरु और कौन हो सकते हैं?
तो आइये जगद्गुरु शिव को ही अपना गुरु बना लिया जाय।
इसके लिये, शिव-गुरु की दया से, मानव-जाति को, इस कालखंड के प्रथम शिव-शिष्य, महामानव, वरेण्य गुरु-भ्राता, साहबश्री हरीन्द्रानंद जी के माध्यम से प्रदत्त 3 सूत्र सहायक हैं।
1. दया मांगना-

"हे शिव आप मेरे गुरु हैं, मैं आपका शिष्य हूँ, मुझ शिष्य पर दया कर दीजिये" (मन ही मन)

2. चर्चा करना-

दूसरों को भी यह सन्देश देना कि, "शिव मेरे गुरु हैं, आपके भी हो सकते हैं"

3. नमन करना-

अपने गुरु को प्रणाम निवेदित करने की कोशीश करना। चाहें तो नमः शिवाय का प्रयोग कर सकते हैं। (मन ही मन, सांस लेते समय नमः तथा छोड़ते समय शिवाय)

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