कर्म-फल का विज्ञान

कहा जाता है कि कर्मों के फल कभी क्षय नहीं होते और हमारे जीवन के सुख-दुःख, हमारे अपने कर्मों के ही फल हैं।

लेकिन कर्म की प्रक्रिया के पीछे भी रहस्य है।

हमारे कर्म, हमारे अंतर्मन या अवचेतन मन की बनावट (Constitution of sub-conscious mind) पर निर्भर करते हैं।

हमारे मनोभाव, हमारे कर्मों को नियंत्रित करते हैं। जैसी मनोदशा होगी, मन जिस दिशा में उन्मुख होगा, कर्म भी उसी दिशा में उन्मुख होंगे।

मन की दशा और भाव बनते हैं विचारों की आवृत्ति से, विचारों की संगति से।

हम जिस विचार की भी "चर्चा" बार बार करते हैं, उस विचार की आवृत्ति मन में बार-बार होती है और वह विचार घनीभूत होकर भाव में बदल जाते हैं।

"शिव मेरे गुरु हैं, आपके भी हो सकते हैं"। अगर इसी विचार की चर्चा बार बार की जायेगी तो यह भाव में बदल जायेगा। इसीलिये कहा गया है कि, "दूसरों को शिव के गुरु स्वरुप से जोड़ने के उद्देश्य से की गयी चर्चा, 'शिष्य-भाव' जागरण की उत्तम विधा है"।

लेकिन हम दिन रात अनावश्यक और अनुत्पादक और यहाँ तक कि हानिकारक चर्चाओं में व्यस्त रहते हैं, जो कि हमारे अवचेतन मन की संरचना पर बुरा प्रभाव डालता है और परिणामतः हमारे कर्मों पर भी।

क्यों?

क्योंकि हमारा आपका मन स्वाभाविक रूप से जागतिक आकर्षण में फंसा रहता है। इसीलिये हमारे आपके कर्म भी क्षणिक सुख और पुनः दुःख देनेवाले लक्ष्यों की ओर उन्मुख होते हैं।

जो हमेशा एक जैसा नहीं रहता, वह सत्य नहीं है। लेकिन यह बात हमारे आपके बोध में नहीं उतर पाता।

मन को असत्य के आकर्षण से सत्य की तरफ मोड़ने के लिए प्रबल गुरुत्त्व की आवश्यकता है, जो सिर्फ और सिर्फ सबल गुरु के पास हो सकता है।

ईश्वर से अधिक सबल गुरु कौन हो सकते हैं?

मूल कर्त्ता तो परमात्मा ही हैं।

अगर मानवीय चेतना का समन्वय परम चेतना अर्थात् सूक्ष्मातिसूक्ष्म परम चैतन्यात्मा से हो जाय तो निश्चय ही कर्मों की गुणवत्ता में उत्तरोत्तर वृद्धि होती चली जायेगी।

इसीलिये कहा गया है कि, शिव-गुरु की दया से कर्म-फलों का क्षय होता है।

यह भी कहा गया है कि, "भावी मेटि सकहिं त्रिपुरारी"।

और यह भी कि, "शिव-गुरु की दया से शिष्य के लौकिक और पार लौकिक मनोरथ स्वतः सिद्ध होते हैं"।

और यह भी कि, "शिव-गुरु भोग और मोक्ष के अभिन्न रूप से दाता हैं"।

आवश्यकता है तो बस परमात्मा के साथ एक कनेक्शन, एक सम्बन्ध विकसित करने की।

एक रिश्ता गुरु-शिष्य का...

शिव को "अपना" गुरु बनाने के लिए, शिव-गुरु की दया से, इस कालखंड के प्रथम शिव-शिष्य, वरेण्य गुरुभ्राता, महामानव, साहबश्री हरीन्द्रानंद जी के माध्यम से, 3 सूत्र दिए गए हैं...

1. दया मांगना:

"हे शिव आप मेरे गुरु हैं, मैं आपका शिष्य हूँ, मुझ शिष्य पर दया कर दीजिये" (मन ही मन)

2. चर्चा करना:

दूसरों को भी यह सन्देश देना कि, "शिव मेरे गुरु हैं, आपके भी हो सकते हैं"

3. नमन करना:

अपने गुरु को प्रणाम निवेदित करने की कोशीश करना। चाहें तो नमः शिवाय का प्रयोग कर सकते हैं। (मन ही मन, सांस लेते समय नमः तथा छोड़ते समय शिवाय)

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