आराध्य
ग्रंथों में कहा गया है, "एकमेवाद्वीतीयं" या "ला इलाहा इल्लल्लाह"। अर्थात एक ही है जिसके जैसा दूसरा हो नहीं सकता जो हमारे ख़यालों में लाने लायक है...
खयाल या ध्यान का संबंध है "चर्चा" से। हम जिसकी भी चर्चा करते हैं, वो हमारे खयाल में आता है, अर्थात ध्यान उसपर जाता है।
अक्सर लोग जगत की अपनी अल्पकालिक यात्रा में जगदीश्वर को भूल जाते हैं और "जरूरत से ज्यादा" जगत की चर्चा में लीन रहते हैं। परिणामतः दुनियां की चिंता में दीन को भूल जाते हैं।
ऐसा नहीं है कि जगत में रहते हुए जगत की चर्चा बिलकुल ही नहीं की जानी चाहिए। दिक्कत यह है कि जरूरत से ज्यादा कोई भी चीज असंतुलन लाता है, जो पतन का कारण बनता है।
आज के परिवेश में बिलकुल यही हो रहा है। परिणामतः मानवीय चेतना पतन के गर्त में जा चुकी है, जिसके पुनरुत्थान हेतु प्रबल "गुरूत्व" की आवश्यकता है।
ईश्वर से अधिक गुरूत्व और किसमें हो सकता है? बस जरूरत है कि हमारा मन उनसे जुड़ा रहे...
तो "आइये भगवान शिव को 'अपना' गुरु बनाया जाय"...
3 सूत्रों की सहायता से:
1. दया मांगना:
हे शिव आप मेरे गुरु हैं, मैं आपका शिष्य हूँ, मुझ शिष्य पर दया कर दीजिये (मन ही मन)
2. चर्चा करना:
दूसरों को भी यह सन्देश देना कि, शिव मेरे गुरु हैं, आपके भी हो सकते हैं
3. नमन करना:
अपने गुरु को प्रणाम निवेदित करने की कोशीश करना। चाहें तो नमः शिवाय का प्रयोग कर सकते हैं (मन ही मन: साँस लेते समय नमः, छोड़ते समय शिवाय)
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