जरूरत या पसंद

 

इस दुनियां को अच्छी चीजें देना सबसे कठिन काम है, क्योंकि जरुरत है जो लोगों की वो उनकी पसंद नहीं और पसंद है जो लोगों की वो उनकी जरूरत नहीं।
उदाहरण के लिए, उपचार के प्राकृतिक नियमों का पालन करते हुए, अगर कम से कम दवा का प्रयोग करते हुए दबे हुए रोगों को बाहर निकाल कर वर्तमान उपचार के साथ साथ भविष्य में होने वाले जटिलताओं से भी बचाव करने वाली चिकित्सा, जो लोगों की जरूरत है, वो आम लोगों की पसंद नहीं है, जबकि भारी मात्रा में बाहरी हस्तक्षेप कर, निकल रहे विकारों को दबा कर, भविष्य में होने वाली गंभीर जटिलताओं का कारण बनने वाली पद्धति आम लोगों की पसंद है!
उसी तरह शुद्ध देसी गायों के स्वास्थ्यवर्धक दूध की जगह, विदेशी गायों का अस्वास्थ्यकर दूध, अथवा मिलावट वाले तथा कृत्रिम नकली दूध आम लोगों की पसंद है।
जानते हैं क्यों?
क्योंकि अधिकांश लोग या तो नासमझ हैं या खुद कमीने हैं।
कैसे?
अपवादों को छोड़ दें तो आज के दौर में लगभग हर आदमी अपने फायदे के लिए किसी और के नुकसान की कोई परवाह नहीं करता। यहां तक कि मौका मिलते ही गिरी हुई हरकत करता है अगर पकड़े जाने का भय नहीं हो।
तो 2 नंबर लोगों को ईश्वर ही भटका कर 1 नंबर चीजों से वंचित कर देते हैं।
वैसे भी जो खुद भरोसे के काबिल नहीं, वो दूसरों पर भी भरोसा नहीं कर पाता।
इसीलिए सत्य के प्रति निष्ठावान लोगों का जीना बहुत ही कठिन है, इस कालखंड में।
लेकिन जिन्हें सत्य से प्रेम है, वो दिखावे की सफलता की जगह दुनियां की नजर में असफल होना स्वीकार करते हैं, क्योंकि लोगों की प्रशंसा अंदर की दरिद्रता नहीं मिटा सकती और आत्मसंतुष्टि तब मिलती है जब आपकी अंतरात्मा आपकी प्रशंसा करती है। अन्यथा बाहर से कितने भी सफल लोग हैं, अंतरिक दरिद्रता उन्हें कभी मानसिक शांति और आत्मसंतुष्टि नहीं देती। यह प्रायोगिक बात है।
अंतरात्मा आपकी प्रशंसा तब करती है, जब आप लोभ या अपेक्षा से मुक्त होकर वह कार्य करते हैं, जिसमें लोकहित हो। जो सही हो और जिसे करते समय नीयत में कोई खोट नही हो।
अन्यथा, आम लोगों के पैमाने पर सफल दिखने के लिए, चाहे आप जो कुछ भी कर लें आपकी आंतरिक दरिद्रता नहीं मिट सकती और आप कभी भी आत्मसंतुष्ट नही हो सकते।
सबसे बड़ी बात यह कि जिनकी खुद की नीयत सही नहीं है, वो इस जगत में सही और अच्छी चीजें प्राप्त करने का अधिकार खो बैठते हैं।
तो लोग इतने गिर क्यों गए हैं?
क्योंकि उनमें सामान्य समझ (common sense) की कमी हो गई है और वो अल्पकालिक लाभ के लिए दीर्घकालिक हानि की गणना नहीं कर पाते।
आज के परिवेश में तमाम समस्याओं का मूल कारण है, "मानवीय चेतना का अधःपतन", जिसकी वजह से लोगों में समझ की कमी हो गई है और लोग तुच्छ-स्वार्थी हो गए हैं।
मानवीय चेतना के पुनरुत्थान के लिए प्रबल "गुरूत्व" की आवश्यकता है, ठीक उसी प्रकार जैसे किसी गहरी खाई में गिर चुके किसी वाहन को निकालने के लिए क्रेन की आवश्यकता होती है, टोचन की नहीं।
गुरूत्व का अर्थ ही होता है, "खींचने की ताकत"।
"गुरु वही हो सकते हैं जिनमें गुरूत्व हो"।
ईश्वर अर्थात "सूक्ष्मातिसूक्ष्म परम चैतन्यात्मा" से ज्यादा गुरूत्व किसमें हो सकता है?
शिव गुरु की शिष्यता परिणामदायी है, यह प्रायोगिक तौर पर सिद्ध हो चुका है।
सतही तौर पर नहीं, स्थायी समाधान के लिए, समस्या के मूल कारण को दूर करने हेतु...
।।प्रणाम।।
"आइये भगवान शिव को 'अपना' गुरु बनाया जाय"...
3 सूत्रों की सहायता से:
1. दया मांगना: "हे शिव आप मेरे गुरु हैं, मैं आपका शिष्य हूँ, मुझ शिष्य पर दया कर दीजिये" (मन ही मन)।
2. चर्चा करना: दूसरों को भी यह सन्देश देना कि, "आइये भगवान शिव को 'अपना' गुरु बनाया जाय"।
3. नमन करना: अपने गुरु को प्रणाम निवेदित करने की कोशीश करना। चाहें तो "नमः शिवाय" का प्रयोग कर सकते हैं (मन ही मन: साँस लेते समय नमः, छोड़ते समय शिवाय)।

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