प्यार या व्यापार


लोभ या भय से व्यापार किया जाता है, प्यार नहीं।
लोभ चाहे स्वर्ग का हो या भय हो नर्क का, या कोई और, अगर पूजा या इबादत का कारण लोभ या भय है, तो यह पूजा है ही नही!
क्योंकि ईश्वर से प्रेम को ही भक्ति कहते हैं और भक्तिवश किया गया कोई भी कर्म ही पूजा है।
अगर हृदय में ईश्वर के प्रति प्रेम जग जाए, तो बिन मांगे ही वो सबकुछ मिल जाता है, जो मांगने से भी नही मिलता।
शिष्य के हृदय में शिव (ईश्वर) के प्रति प्रेम जग जाए, किसी भी गुरु का यही काम है। शिवगुरु का भी यही काम है।
आज के परिवेश में तमाम समस्याओं का मूल कारण है, "मानवीय चेतना का अधःपतन", जिसकी वजह से लोगों में समझ की कमी हो गई है और लोग तुच्छ-स्वार्थी हो गए हैं।
मानवीय चेतना के पुनरुत्थान के लिए प्रबल "गुरूत्व" की आवश्यकता है, ठीक उसी प्रकार जैसे किसी गहरी खाई में गिर चुके किसी वाहन को निकालने के लिए क्रेन की आवश्यकता होती है, टोचन की नहीं।
गुरूत्व का अर्थ ही होता है, "खींचने की ताकत"।
"गुरु वही हो सकते हैं जिनमें गुरूत्व हो"।
ईश्वर अर्थात "सूक्ष्मातिसूक्ष्म परम चैतन्यात्मा" से ज्यादा गुरूत्व किसमें हो सकता है?
शिव गुरु की शिष्यता परिणामदायी है, यह प्रायोगिक तौर पर सिद्ध हो चुका है।
सतही तौर पर नहीं, स्थायी समाधान के लिए, समस्या के मूल कारण को दूर करने हेतु...
।।प्रणाम।।
"आइये भगवान शिव को 'अपना' गुरु बनाया जाय"...
3 सूत्रों की सहायता से:
1. दया मांगना: "हे शिव आप मेरे गुरु हैं, मैं आपका शिष्य हूँ, मुझ शिष्य पर दया कर दीजिये" (मन ही मन)।
2. चर्चा करना: दूसरों को भी यह सन्देश देना कि, "आइये भगवान शिव को 'अपना' गुरु बनाया जाय"।

3. नमन करना: अपने गुरु को प्रणाम निवेदित करने की कोशीश करना। चाहें तो "नमः शिवाय" का प्रयोग कर सकते हैं (मन ही मन: साँस लेते समय नमः, छोड़ते समय शिवाय)। 

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