तथाकथित "आध्यात्मिक समूहों" में सबसे अधिक पाखंडी लोग क्यों मिलते हैं?

✨❓क्या आपने कभी गौर किया है—
तथाकथित "आध्यात्मिक समूहों" में सबसे अधिक पाखंडी लोग क्यों मिलते हैं?

लोग साधु, संत, मुल्ला, पादरी, शिष्य, भक्त इत्यादि का वेश धारण करते हैं, परवचन (प्रवचन नहीं) झाड़ते हैं, दिखावा करते हैं… लेकिन भीतर से वे कितने खाली और असंतुलित होते हैं! आखिर ऐसा क्यों?

🔍 असल कारण बहुत गहरा है—
मानव की सबसे बड़ी कमजोरी है प्रशंसा पाने की चाहत।
और इस कमजोरी से जन्म लेती है सबसे बड़ी बीमारी—दिखावा करने की आदत।

अब प्रश्न यह है कि इंसान को दूसरों की प्रशंसा की इतनी भूख क्यों होती है?
👉 क्योंकि उसकी अपनी अंतरात्मा उसकी प्रशंसा नहीं करती।
और जब आत्मा ताली नहीं बजाती, तब मनुष्य बाहर वालों से तालियां बटोरने की कोशिश करता है।

🌿 आपकी आत्मा आपकी प्रशंसा कब करती है?
जब आप बिना किसी स्वार्थ, बिना किसी अपेक्षा के, केवल दया के वशीभूत होकर किसी की सहायता करते हैं।
उस क्षण आपके भीतर से उठने वाली शांति और संतोष ही सच्ची प्रशंसा है।

⚠️ निष्कर्ष और चेतावनी:
आध्यात्मिक मार्ग पर दिखावा और पाखंड केवल आपकी चेतना का और अधिक पतन कर देंगे।
यदि सच में उन्नति चाहिए, तो दूसरों से नहीं, अपनी अंतरात्मा से प्रशंसा पाना सीखें।

✨ सच्चा अध्यात्म दिखावे से नहीं, निरपेक्ष करुणा से प्रकट होता है। इसके लिए आवश्यक है कि मन दया/करुणा स्रोत से जुड़े।
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।।प्रणाम।।


आज के परिवेश में तमाम समस्याओं का मूल कारण है, "मानवीय चेतना का अधःपतन", जिसकी वजह से लोगों में समझ की कमी हो गई है।


मानवीय चेतना के पुनरुत्थान के लिए प्रबल "गुरूत्व" की आवश्यकता है, ठीक उसी प्रकार जैसे किसी गहरी खाई में गिर चुके किसी वाहन को निकालने के लिए क्रेन की आवश्यकता होती है, टोचन की नहीं।


गुरूत्व का अर्थ ही होता है, "खींचने की ताकत"।


"गुरु वही हो सकते हैं जिनमें गुरूत्व हो"।


ईश्वर अर्थात "सूक्ष्मातिसूक्ष्म परम चैतन्यात्मा" से ज्यादा गुरूत्व किसमें हो सकता है?


शिव गुरु की शिष्यता परिणामदायी है, यह प्रायोगिक तौर पर सिद्ध हो चुका है।


सतही तौर पर नहीं, स्थायी समाधान के लिए, समस्या के मूल कारण को दूर करने हेतु...


"आइये भगवान शिव को 'अपना' गुरु बनाया जाय"...


3 सूत्रों की सहायता से:


1. दया मांगना: "हे शिव आप मेरे गुरु हैं, मैं आपका शिष्य हूँ, मुझ शिष्य पर दया कर दीजिये" (मन ही मन)।


2. चर्चा करना: दूसरों को भी यह सन्देश देना कि, "आइये भगवान शिव को 'अपना' गुरु बनाया जाय"।


3. नमन करना: अपने गुरु को प्रणाम निवेदित करने की कोशीश करना। चाहें तो "नमः शिवाय" का प्रयोग कर सकते हैं (मन ही मन: साँस लेते समय नमः, छोड़ते समय शिवाय)।



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