जब मैं एक गुरुभाई से मिला

विगत 1 अक्टूबर 2015 को मैं एक गुरुभाई से मिला।

नाम है सुरेन्द्र गुरुभाई।
घर-पोठिया, फारबिसगंज।

उनसे मिलने की इच्छा पिछले 15-20 दिनों से जोर मार रही थी।

वैसे तो पिछले एक साल में, मैं उनसे कम से कम 30 से 40 बार मिल चुका हूँ। लेकिन कभी भी अकेले उनसे बात नहीं हुई थी। हर बार किसी न किसी साप्ताहिक में या छोटे-बड़े कार्यक्रमों में।

पता नहीं क्यों पिछले कुछ दिनों से उनसे अकेले में मिलने की इच्छा जोर पकड़ रही थी।

तो पिछले 1 अक्टूबर को जब मैं कटिहार से लौट रहा था, तो मेरी बाइक उनके घर की ओर मुड़ गयी।
जब गाड़ी मुड़ ही गयी, तो मेरे मन में ये चलने लगा कि, उनसे बात क्या की जायेगी?

तभी मेरे मन में 2 जिज्ञासाएँ आयी,
जो पिछले 2-3 दिनों से मेरे मन में चल रही थीं।

जब मैं उनके घर पहुंचा, तो मुझे उम्मीद नहीं थी कि वो मुझे घर पर मिलेंगे। दिन डूबने में 1 घंटा से भी कम समय बचा था और इस वक्त वो कहीं न कहीं गुरुकार्य कर रहे होते हैं, या घर से निकल चुके होते हैं। मुझे आश्चर्य हुआ यह देखकर कि, सुरेन्द्र भैया और उनकी पत्नी मिलकर बांस के बर्तन बना रहे थे।

क्योंकि मैं सोचता था कि, भैया अपना सारा काम-धंधा छोड़कर केवल गुरुकार्य ही करते हैं। इस बात के लिये मैंने एकदिन उन्हें सलाह भी दी थी कि, लौकिक कार्यों पर भी ध्यान देना चाहिये और संतुलन बना कर चलना चाहिये। (आखिर सलाह देना दुनियां का सबसे आसान काम है और दुनियां का सबसे होशियार आदमी होता है मैं) तो उन्होंने मुझे बताया था कि, मैं नियमित रूप से लौकिक कार्य भी करता हूँ और गुरुदया से कम समय खर्च करके भी पर्याप्त आमदनी कर लेता हूँ। उनकी बात मुझे हाथों-हाथ मिल गयी।

मुझे देखते ही उन्होंने कुर्सियां मंगवायीं और मैंने चाय की फरमाइश की। जबतक चाय आती, तबतक बिस्कुट और पानी हाजिर था और बातचीत शुरू हो गयी।

मैं वहाँ इस भाव में पहुंचा था कि, आज सुरेन्द्र भैया की काउंसलिंग करूँगा। (वो मुझसे उम्र में छोटे हैं, गुरुभाइयों को भैया और गुरुबहनों को दीदी कहने की आदत है, चाहे उनकी उम्र कुछ भी हो) मैं वहाँ ज्ञान देने के लिये गया था, लेकिन पहली जिज्ञासा पूछने के बाद ही स्थिति बदल चुकी थी।

तो जो मैंने पहली जिज्ञासा की, वो ये थी, "अगर शिष्य बहुत ही अच्छा है और गुरू बिलकुल ही अच्छा नहीं है, तो काम चलेगा?"

कुछ ही पल विचार करके, सुरेन्द्र भैया ने कहा, हाँ, चलेगा। और जवाब सुनते ही मेरा मन मान गया कि, गुरूभाई सही कह रहे हैं। जबकि पहले से मैं ये मानता था कि, केवल शिष्य अच्छा होने से काम नहीं चलेगा, गुरु भी अच्छा होना चाहिये।

जैसे ही सुरेन्द्र गुरूभाई ने कहा कि, हाँ, काम चलेगा, तैसे ही मेरे मनोमस्तिष्क में, एकलव्य और मूर्ति का ध्यान कौंध गया था, जहाँ गुरु न तो बोल सकते थे और न ही सुन सकते थे।

फिर मैंने दूसरी जिज्ञासा की, "अगर गुरु बहुत ही अच्छे हैं और शिष्य अच्छा नहीं है, तो काम चलेगा"?

एक बार फिर उन्होंने कहा, हाँ, चलेगा काम। और एक बार फिर मेरा मन तुरंत मान गया, जबकि पहले से मैं यह मानता था कि, गुरु और शिष्य दोनों ही अच्छा होना जरुरी है।

जैसे ही सुरेन्द्र भैया ने कहा कि, हाँ चलेगा काम, तैसे ही मेरे मन में आया कि सही कह रहे हैं। गुरू अगर अच्छे होंगे, तो शिष्य को अच्छा बना लेंगे। जरुरत है तो सबल गुरू की।

उस दिन मुझे समझ में आया कि, साधारण सा दिखने वाला शिव-शिष्य भी, बहुत ही गहराई में हो सकता है।
और मेरे जैसा व्यक्ति, बिना सामनेवाले की चेतना को परखे, सीधे ज्ञान देने की कोशीश करने लगता है।

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