Prosperity समृद्धि
अक्सर बाहर से समृद्ध दिखने वाले लोग, अंदर से दरिद्र होते हैं।
ऐसा नहीं है कि बाहर से समृद्ध दिखने वाले सभी लोग अंदर से दरिद्र होते हैं, लेकिन अधिकांश मामलों में ऐसा ही होता है।
आखिर क्यों?
क्योंकि लोग समझते हैं कि, केवल आर्थिक समृद्धि से ही सुख-शांति पायी जा सकती है?
मैं आर्थिक समृद्धि के महत्व से इनकार नहीं कर रहा हूँ।
अपनी जगह यह भी आवश्यक है और इसके लिए भी प्रयास करना गलत नहीं है।
लेकिन, जरा सोचिये, केवल आर्थिक विकास कर लेने से ही जीवन की सारी समस्याएं ख़त्म हो जाती हैं?
क्या हमारे "विचार" भी समृद्ध नहीं होने चाहिये?
क्या हमारे "भाव" भी समृद्ध नहीं होने चाहिये?
क्या हमारा "अंतर्मन" भी समृद्ध नहीं होना चाहिये?
क्या आतंरिक समृद्धि के बगैर, आत्मसंतुष्टि संभव है?
मेरे विचार से तो बिना "सम्यक" (आतंरिक और बाह्य) समृद्धि के हमारी दरिद्रता समाप्त नहीं हो सकती।
तो सम्यक समृद्धि पाने के लिये, हम क्या करें?
इसके लिये हमें "सम्यक ज्ञान" की जरुरत है जो सिर्फ एक सबल गुरु दे सकते हैं, जिनमें हमारे स्थूल और सूक्ष्म को प्रभावित करने की शक्ति हो।
जो हमारी चेतना के तल पर उतर कर इसका परिमार्जन कर सकें।
जो हमारी जिम्मेवारी लेकर हमारे सर्वश्रेष्ठ गुणों का विकास कर सकें।
जरा सोचिये,
ऐसे गुरु कौन हो सकते हैं, सिवाय परमात्मा के
तो क्यों न हम उसी परम चेतना, परम सत्ता को अपना गुरु बनालें जो हमारे आपके होने का कारण है?
ऐसा नहीं है कि बाहर से समृद्ध दिखने वाले सभी लोग अंदर से दरिद्र होते हैं, लेकिन अधिकांश मामलों में ऐसा ही होता है।
आखिर क्यों?
क्योंकि लोग समझते हैं कि, केवल आर्थिक समृद्धि से ही सुख-शांति पायी जा सकती है?
मैं आर्थिक समृद्धि के महत्व से इनकार नहीं कर रहा हूँ।
अपनी जगह यह भी आवश्यक है और इसके लिए भी प्रयास करना गलत नहीं है।
लेकिन, जरा सोचिये, केवल आर्थिक विकास कर लेने से ही जीवन की सारी समस्याएं ख़त्म हो जाती हैं?
क्या हमारे "विचार" भी समृद्ध नहीं होने चाहिये?
क्या हमारे "भाव" भी समृद्ध नहीं होने चाहिये?
क्या हमारा "अंतर्मन" भी समृद्ध नहीं होना चाहिये?
क्या आतंरिक समृद्धि के बगैर, आत्मसंतुष्टि संभव है?
मेरे विचार से तो बिना "सम्यक" (आतंरिक और बाह्य) समृद्धि के हमारी दरिद्रता समाप्त नहीं हो सकती।
तो सम्यक समृद्धि पाने के लिये, हम क्या करें?
इसके लिये हमें "सम्यक ज्ञान" की जरुरत है जो सिर्फ एक सबल गुरु दे सकते हैं, जिनमें हमारे स्थूल और सूक्ष्म को प्रभावित करने की शक्ति हो।
जो हमारी चेतना के तल पर उतर कर इसका परिमार्जन कर सकें।
जो हमारी जिम्मेवारी लेकर हमारे सर्वश्रेष्ठ गुणों का विकास कर सकें।
जरा सोचिये,
ऐसे गुरु कौन हो सकते हैं, सिवाय परमात्मा के
तो क्यों न हम उसी परम चेतना, परम सत्ता को अपना गुरु बनालें जो हमारे आपके होने का कारण है?
शिव को "अपना" गुरु बनाने के लिए, शिव-गुरु की दया से, इस कालखंड के प्रथम शिव-शिष्य, वरेण्य गुरुभ्राता, महामानव, साहबश्री हरीन्द्रानंद जी के माध्यम से, 3 सूत्र दिए गए हैं...
1. दया मांगना:
"हे शिव आप मेरे गुरु हैं, मैं आपका शिष्य हूँ, मुझ शिष्य पर दया कर दीजिये" (मन ही मन)
2. चर्चा करना:
दूसरों को भी यह सन्देश देना कि, "शिव मेरे गुरु हैं, आपके भी हो सकते हैं"
3. नमन करना:
अपने गुरु को प्रणाम निवेदित करने की कोशीश करना। चाहें तो नमः शिवाय का प्रयोग कर सकते हैं। (मन ही मन, सांस लेते समय नमः तथा छोड़ते समय शिवाय)
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