sadhya aur sadhan साध्य और साधन
कुछ लोग कहते हैं साधन से कोई फर्क नहीं पड़ता,
साध्य सही होना चाहिये।
खासकर आध्यात्मिक चर्चा जब भी होती है, कुछ लोगों के पास रटा रटाया जवाब होता है, अरे जाना तो वहीँ है न, मार्ग और साधन से क्या फर्क पड़ता है?
बहुत दिनों तक मैं भी ऐसा ही विचार रखता था।
लेकिन जरा सोचिये।
एक पिता बहुत बीमार है और उसका पुत्र देश के दूसरे कोने में रहता है। एक चिठ्ठी लिखी जाती है और उसे साधारण डाक से भेज दिया जाता है। चिठ्ठी रास्ते में गुम हो जाती है या पहुँचती भी है तब, जब पिता की मृत्यु हो जाती है। वहीँ चिठ्ठी की जगह तार किया जाता है, मेल किया जाता है या सीधे फोन कर दिया जाता है।
क्या परिणाम एक ही होगा?
एक और उदहारण लेते हैं।
किसी को गुवाहाटी से दिल्ली जाना है।
वह बैलगाड़ी से चलता है, या रेलगाड़ी से चलता है, या हवाई जहाज से चलता है।
क्या परिणाम एक ही होगा?
अगर मंजिल दिल्ली की जगह अमेरिका हो, या अगर मंजिल अंतरिक्ष में जाना हो?
हमने भौतिक जीवन में अपने साधन लगातार बदले हैं, लेकिन बात जब आध्यात्मिक साधन की हो, तो फिर वही रटा रटाया जवाब !!!
हद है।
क्या यह बैकवर्ड सोच नहीं है?
अधिकाँश लोगों की यही हालात है।
इनमें वो लोग भी शामिल हैं, जो स्मार्टफोन, कंप्यूटर, इंटरनेट जैसे, संचार के आधुनिक साधनों का इस्तेमाल करते हैं और तथाकथित आधुनिक विचारधारा वाले लोग हैं।
अधिकाँश लोगों की यही हालात है।
इनमें वो लोग भी शामिल हैं, जो स्मार्टफोन, कंप्यूटर, इंटरनेट जैसे, संचार के आधुनिक साधनों का इस्तेमाल करते हैं और तथाकथित आधुनिक विचारधारा वाले लोग हैं।
आखिर अध्यात्म के मामले में ही हमारी सोच इतनी बैकवर्ड क्यों हो जाती है?
इस मामले में ही, हम इतने अतीतप्रेमी क्यों हो जाते हैं?
इतना कट्टरवाद क्यों?
अध्यात्म में प्रयोग क्यों नहीं हो रहे? या नए प्रयोगों को क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है?
जबकि यह मंजिल तो अंतरिक्ष में जाने की तुलना में भी बहुत ज्यादा महान है!
मित्रो, जिस तरह भौतिक साधनों के मामले में, मानवीय चेतना ने बहुत ज्यादा विकास किया है, उसी तरह अध्यात्म के मामले में भी मानवीय चेतना ने अभूतपूर्व विकास किया है और चेतना के उच्चतम तलों को छुआ है। और यही होना था। क्योंकि विकास एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है और परिवर्तन संसार का स्वाभाविक नियम है।
ये अलग बात है कि, इस क्षेत्र में परिवर्तन का सबसे अधिक विरोध होता है।
तो आइये इस कालखंड के प्रथम शिव-शिष्य, वरेण्य गुरू भ्राता, साहबश्री हरीन्द्रानंद जी के माध्यम से मनुष्य जाति को ईश्वर की अनुपम भेंट, "3 सूत्र" का पालन कर हम और आप ईश्वर से गुरू-शिष्य का रिश्ता जोड़ें और मानवीय चेतना को अप्रतिम ऊंचाइयों पर ले चलें।
क्योंकि इस संसार की लगभग सभी समस्याओं का मूल कारण है, " मानवीय चेतना का अल्प विकास"...
शिव को "अपना" गुरु बनाने के लिए, शिव-गुरु की दया से, इस कालखंड के प्रथम शिव-शिष्य, वरेण्य गुरुभ्राता, महामानव, साहबश्री हरीन्द्रानंद जी के माध्यम से, 3 सूत्र दिए गए हैं...
1. दया मांगना-
"हे शिव आप मेरे गुरु हैं, मैं आपका शिष्य हूँ, मुझ शिष्य पर दया कर दीजिये" (मन ही मन)
2. चर्चा करना-
दूसरों को भी यह सन्देश देना कि, "शिव मेरे गुरु हैं, आपके भी हो सकते हैं"
3. नमन करना-
अपने गुरु को प्रणाम निवेदित करने की कोशीश करना। चाहें तो नमः शिवाय का प्रयोग कर सकते हैं। (मन ही मन, सांस लेते समय नमः तथा छोड़ते समय शिवाय)
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