बंदर की याद


एक बार एक चालाक गुरु ने एक सीधे सादे शिष्य को फंसा लिया, यह कहकर कि तुम मेरी सेवा करो, बदले में मैं तुम्हें एक मंत्र दूंगा, जिसे 108 बार जप लेने से ही तुम्हें ईश्वर की प्राप्ति हो जाएगी।
शिष्य ने जीजान से अपने गुरु की सेवा की, लेकिन जब भी वो मन्त्र देने का आग्रह करता, गुरुजी कोई न कोई बहाना बनाकर टाल देते।
अंत में ऐसी स्थिति आयी कि अब गुरुजी का अंत समय आ गया। चेला अत्यंत अधीर हो उठा। उसने गुरुजी को पकड़ लिया कि, अब तो मन्त्र दे ही दीजिये, नहीं तो मैं आपको मरने नहीं दूंगा। जिंदगी भर मैंने आपकी सेवा की है। अब तो आपको मन्त्र देना ही पड़ेगा।
गुरुजी बोले, ठीक है मैं तुम्हें मन्त्र देता हूँ, लेकिन वादा करो कि मेरा अंतिम संस्कार करने के बाद ही जपोगे। और इस मंत्र के साथ शर्त यह है कि, इसे जपने के समय "बन्दर की याद नहीं आनी चाहिए"।
शिष्य अत्यंत प्रसन्न हुआ और बोला कि बिल्कुल नहीं आएगी बन्दर की याद। भला मन्त्र जप से बन्दर का क्या सम्बन्ध? आप मन्त्र तो दीजिये।
उसके बाद गुरुजी ने उसे कोई भी एक मन्त्र दे दिया।
कुछ ही दिनों में गुरुजी चल बसे। शिष्य ने श्रद्धा पूर्वक गुरुजी का अंतिम संस्कार किया और खुशी खुशी घर की ओर चल पड़ा।
रास्ते में एक एकांत जगह पाकर शिष्य ने सोचा कि, क्यों न यहीं 108 बार मंत्रजप कर ही लूं और वह आसन लगाकर बैठ गया।
लेकिन जैसे ही उसने मन्त्र का जप प्रारंभ किया, उसे बन्दर की याद आने लगी। अब वो जितना ही बन्दर को अपने खयाल से हटाने की कोशिश करता, उतना ही ज्यादा बन्दर उसके सामने आ जाते। स्थिति यहां तक हो गयी कि, जब भी वो मंत्रजप का प्रयास करता तो बन्दर ही बन्दर उसके खयाल में भर जाते।
अंततः चेला पूरी तरह से निराश हो गया। वह अपने गुरुजी के प्रति शर्मिंदा था कि, आपने तो अपना वादा निभाया, लेकिन मैं ही योग्य नहीं था।
अगर मन्त्र के साथ बन्दर याद नहीं आने की शर्त नहीं लगायी जाती तो बन्दर के याद आने का सवाल ही नहीं था। अगर आपको कहा जाय कि गाय को याद मत कीजिये, तो आपको गाय ही याद आएगी।
कहा गया है कि, कहानी सच भी होती है और कहानी झूठ भी होती है, लेकिन कहानियों में जो संदेश छुपे होते हैं, जो मैसेज छुपे होते हैं, वे बड़े काम के होते हैं।
आजकल अधिकांश शरीरधारी गुरु यही काम करते हैं। अपने शिष्य पर तरह तरह के प्रतिबंध लगाते हैं। परिणाम वही होता है, जो इस कहानी के शिष्य के साथ हुआ। मजे की बात यह होती है, दोष गुरुजी को नहीं लगता, बल्कि शिष्य स्वयं को ही अयोग्य समझ लेता है।
अंधकार के दमन की नहीं प्रकाश के आगमन की आवश्यकता है। इसीलिए शिव गुरु की शिष्यता में कोई शर्त या बन्धन नहीं है। यहां जबरदस्ती कुछ छोड़ना नहीं पड़ता, बल्कि जो छोड़े जाने की जरूरत है, वह समयानुसार अपने आप छूट जाता है।
जब आप आगे बढ़ते हैं, तो पीछे छोड़ना नहीं पड़ता, छूट जाता है।
शिव गुरु की शिष्यता विधेयात्मक विधा है, निषेधात्मक नहीं। अर्थात इसमें यह बताया जाता है कि, क्या करना है; यह नहीं बताया जाता है कि, क्या नहीं करना है।
अति उत्साह में कुछ शिव-शिष्य भी इस सरलतम विधा को जटिल बना देते हैं। याद रखिये, "सत्य सरल है, लोग जटिल हैं"।

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