धर्म, संस्कृति और संप्रदाय


अक्सर लोग कहते हैं कि सनातन धर्म। जैसे कि कई धर्मों में से एक धर्म, सनातन धर्म भी है। कुछ लोग समझते हैं कि, हिदु भी एक धर्म है।

वास्तव में सनातन धर्म नहीं, धर्म सनातन होता है।

धर्म का मतलब क्या है?
"धारयति इति धर्मः"
अर्थात्, "जो धारण किया जाता है, वही धर्म है"।

इसका तात्पर्य गुण से भी है और फर्ज यानि कर्तव्य से भी है।
जैसे कि अग्नि का धर्म है जलाना, पानी का धर्म है भिंगाना और हवा का धर्म है सुखाना।

धर्म का तात्पर्य कर्तव्य से भी है। मानव का एकमात्र धर्म है, मानवता।

अगर 4 कुत्ते एक जगह हैं और उनमें से 1 कुत्ता बहुत तगड़ा है। बाँकी 3 कुत्ते कमजोर हैं। तभी उनके बीच कोई रोटियां डाल कर चला जाता है, तो जो सबसे तगड़ा कुत्ता है, वह अकेले सारी रोटियां खा जायेगा। भले ही उसने अभी कुछ देर पहले ही खाया है और बाँकी कुत्ते बहुत समय से भूखे हैं।

वहीँ अगर 4 आदमी बहुत समय से भूखे हैं और उनके बीच 1 आदमी के लायक ही खाना पहुँचता है, तो जो सबसे मजबूत आदमी है, वह सबसे कमजोर आदमी को सबसे पहले खिलायेगा। अगर उसमें मानवता है तो।
यही मानवता, मानव का धर्म है और यह नियम सनातन है। सनातन का अर्थ होता है, जो कभी भी नहीं बदले। हर कालखंड में एक जैसा रहे।

रह गयी बात हिन्दू की, तो यह एक संस्कृति है, धर्म नहीं।

"किसी भी मानव समुदाय के लंबे जीवनकाल में जो जीवनमूल्य उत्पन्न होते हैं, उसे ही संस्कृति कहते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि, कई तथाकथित धर्म, धर्म नहीं, संस्कृति हैं।

अब रह गयी बात संप्रदाय की, तो संप्रदाय का अर्थ होता है, एक ही चीज देनेवाली। यानि पद्धतियाँ अलग अलग हो सकती हैं, लेकिन परिणाम एक ही होगा। साधन अलग अलग हो सकते हैं, लेकिन साध्य एक ही होगा।
कुछ लोग कहते हैं कि, साधन से क्या होता है, साध्य तो एक ही है!

लेकिन जरा सोचिये, बैलगाड़ी, रेलगाड़ी और हवाई-जहाज अलग अलग साधन हैं और लंबी यात्रा पर जाना है, मान लेते हैं, दिल्ली से न्यूयार्क। क्या परिणाम एक ही होगा?

कोई पिता अपनी अंतिम साँसें गिन रहा है, और उसका पुत्र विदेश में रहता है। एक चिट्ठी भेजी जाती है या एक इमेल किया जाता है या एक कॉल की जाती है, क्या परिणाम एक ही होगा?

तो जैसे जैसे मानव सभ्यता का विकास हुआ है, वैसे वैसे हमारे साधन विकसित हुए हैं।
जिस प्रकार पारंपरिक चिट्ठियों की जगह, मोबाइल और इंटरनेट ने ले ली है उसी तरह अध्यात्म में भी साधनों की खोज हुई है। ये अलग बात है कि, इस मामले में हमारी सोच पीछे की तरफ ही मुड़ी हुई है। इस मामले में ही इतना कट्टरवाद क्यों?

तो आइये, आज के परिवेश में, आज के मनुष्य के लिये उपयुक्त 3 सूत्रों के माध्यम से, हम सूक्ष्मातिसूक्ष्म परम चैतन्यात्मा यानि ईश्वर अर्थात शिव से 1 रिश्ता जोड़ें। गुरू शिष्य का रिश्ता।

ईश्वर के गुरू स्वरुप से जुड़ने के लिये भी, शिव-गुरु की दया से, मानव-जाति को, इस कालखंड के प्रथम शिव-शिष्य, महामानव, वरेण्य गुरु-भ्राता, साहबश्री हरीन्द्रानंद जी के माध्यम से प्रदत्त 3 सूत्र सहायक हैं।

1. दया मांगना-
"हे शिव आप मेरे गुरु हैं, मैं आपका शिष्य हूँ, मुझ शिष्य पर दया कर दीजिये" (मन ही मन)

2. चर्चा करना-
दूसरों को भी यह सन्देश देना कि, "शिव मेरे गुरु हैं, आपके भी हो सकते हैं"

3. नमन करना-
अपने गुरु को प्रणाम निवेदित करने की कोशीश करना। चाहें तो नमः शिवाय का प्रयोग कर सकते हैं। (मन ही मन, सांस लेते समय नमः तथा छोड़ते समय शिवाय)

करके देखा जाय। मुझे बहुत ही सुन्दर परिणाम मिले हैं।

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